Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 655
________________ तत्वार्थचिन्तामणिः ६४१ 1 1 वही आकाश के समान नित्य होकर सर्वत्र व्याप रही सूक्ष्मा वाणी ही वाचक शद्व, संकेतस्मरण, आदिकी अपेक्षा होनेपर अन्योन्याश्रय हो जायगा, इस दूषणका शीघ्र परिहार कर देती है । अर्थात्प्रमेयके ज्ञानको शवको अपेक्षा पडेगी और शद्वयोजना करनेके लिये प्रमेयके ज्ञानकी अपेक्षा होगी । इस अन्योन्याश्रय दोषका निवारण वह सूक्ष्मा वाणी कर देती है । कारण कि सूक्ष्मावाणीका ज्ञानके साथ तादात्म्य हो रहा है । अतः पुनः शद्वयोजना या ज्ञान करनेकी आवश्यकता नहीं रहती है। देवदत्तका ज्ञान देवदत्त इन चार या नौ वर्णोंसे अन्वित हो रहा है । किन्तु फिर इन वर्णोंको अन्य ज्ञान अन्वित नहीं होना पडता है । उष्ण इतके चारो ओर लगी हुयी चाशनीके समान सूक्ष्मा वाणीका सभी ओरसे तादात्म्य हो रहा है। तथा अनवस्था दूषणका भी परिहार भी वही कर देती है । वाचक देवदत्त शद्ब और उसके दकार, एकार, वकार, आदि अंशोंके वाचक पुनः अन्य शका विचार करनेसे अवश्य ही प्रमाणरहितपन और प्रमेयरहितपनका प्रसंग आ जावेगा । भावार्थसभी वाचक शब्द और ज्ञायक ज्ञानोंमें यदि शद्वका अनुविद्धपना माना जावेगा तो विशिष्ट मनुष्यका वाचक देवदत्त शद्व है । और देवदत्त शद्वमें पडे हुये दे या व आदिके वाचक भी पुनः शङ्खान्तर उपस्थित होयंगे और उन शङ्खान्तरोंके लिये भी तीसरी जातिके वाचकशद्व आते जायेंगे। यदि वाचकशब्द और उसके अंश वर्णोंके लिये पुनः अन्य वाचकोंका पृथग्भाव माना जायगा तो पहिले देवदत्त नामक मनुष्य के लिये भी आद्यमें वाचकशद्ब उठानेकी आवश्यकता नहीं है । अतः प्रमेयके ज्ञापक ज्ञान और उससे अनुविद्ध हो रहे शद्व तथा शह्नोंके भी वाचक अन्य शद्व एवं अन्य शह्नोंके भी अंशोंको कहनेवाले शद्वान्तरोंका विचार करनेपर जगत् में न कोई प्रमाण व्यवस्थित हो सकता है । और किसी भी देवदत्त आदि प्रमेयकी सिद्धि नहीं हो सकती है । इस प्रकारकी अनवस्था हम शद्वाद्वैतवादियों के यहां नहीं होती है। क्योंकि वाचकशद्व और उसके वर्ण, मात्रास्वरूप भागोंका दूसरे वैखरी स्वरूप और मध्यमास्वरूप वाचकशद्वोंकर के सर्वथा बाधाओंसे रहित सम्वेदन उत्पन्न हो रहा है । अतः प्रमाणरहितपन और प्रमेयर हितपनका प्रसंग नहीं आ पाता है। तीसरी कोटिपर जाकर आकांक्षा नहीं रहनेसे अनवस्था टूट जाती है । वैखरी और मध्यमा वाणीके उपजनेतक आकांक्षा बढी रहेगी । पश्चात् मध्यमा या स्थूलवाणी वैखरीके लिये भी पुनः वाचकोंको ढूंढने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि वे वाणियां सूक्ष्मा सर्वदा अन्वित से उपजती है । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार जो शद्वाद्वैतवादी अभिमान के साथ समाधान कर रहे हैं, वे (शद्वानुविद्धवादी ) भी विचार किये विना ही जप करनेवाले हैं। क्योंकि अंश, स्वभाव, शक्तियां, तिर्यग अंश, उर्ध्व अंश इन भागों से सर्वथा रहित हो रहे अखण्ड शद्वब्रह्म में तिस प्रकार नित्य, अनित्यस्वरूप चार वाणियोंका अथवा एक सूक्ष्माको निमित्त कारण और अन्य तीनको नैमित्तिक कार्य मानना या निश्चय आत्मक अनिश्चय अत्मकज्ञान, दर्शन, भेद करना कहा नहीं जा सकता है । उक्त प्रकारके भेदयुक्त निरूपण तो सांश पदार्थ में सम्भवते हैं । निःस्वभावमें नहीं । 81

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