Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
अनुमेयको सामान्यरूपसे तो व्याप्तिग्रहण करते समय ही जान चुके थे। अब अनुमानकाल में पुनः सामान्यरूपसे जाननेमें सिद्धसाधन दोष होता है और अनुमेयको विशेषरूपसे जाननेके लिए हेतुका अनुगम गृहीत नहीं हो चुका है। जहां जहां धूआं है, वहां वहां तृणोंकी लम्बी शिखावाली पर्वतीय अग्नि है । इस प्रकार विशेष अग्निके साथ धूमका अनुगम नहीं हो रहा है। अन्यथा व्यभिचार दोष हो जायगा । दूसरे नैयायिक, मीमांसक, या जैनोंकी मानी गयी प्रसिद्धि भी तो इस अद्वैतवादीके यहां प्रसिद्ध नहीं है । अर्थात्-अनुमानप्रमाण माननेवाले वादियोंकी प्रक्रियाको अद्वैतवादियोंने माना नहीं है, जिससे कि समीचीन लिंगसे साध्यका प्रमाणज्ञान हो जाय । वह अन्य वादियोंकी प्रसिद्धि तो अप्रमाणीक मानी गयी है। अतः अनुमानसे भी तुम्हारे ही विचार अनुसार निरंश शब्दब्रह्मकी सिद्धि नहीं हो सकी।
स्वतः संवेदनासिद्धिः क्षणिकानंशवित्तिवत् । न परब्रह्मणो नापि सा युक्ता साधनाद्विना ॥ ९९ ॥
बौद्धोंके माने गये क्षणिक, निरंश, ज्ञानकी जैसे स्वसम्वेदन प्रत्यक्षसे सिद्धि होना तुम शद्वाद्वैतवादियोंने नहीं माना है, उसीके समान नित्य, व्यापक शब्द परमब्रह्मकी भी स्वतः सम्वेदन प्रत्यक्षसे सिद्धि नहीं हो पाती है। दूसरी बात यह है कि साधनके विना यों ही कोरी मानली गयी ब्रह्मकी सिद्धि युक्तिसहित भी नहीं है । अन्यथा हेतुके विना वचनमात्रसे चाहे जिस अश्वविषाण आदि अयुक्तपदार्थकी सिद्धि बन बैठेगी, जो कि किसी भी विद्वान्के यहां नहीं मानी गयी है।
आगमादेव तत्सिद्धौ भेदसिद्धिस्तथा न किम् । निर्वाधादेव चेत्तत्त्वं न प्रमाणांतराहते ॥ १०० ॥ तदागमस्य निश्चेतुं शक्यं जातु परीक्षकैः । न चागमस्ततो भिन्न समस्ति परमार्थतः ॥ १०१ ॥ तद्विवर्तस्त्वविद्यात्मा तस्य प्रज्ञापकः कथं ।
न चाविनिश्चिते तत्त्वे फेनबुबुदवद्भिदा ॥ १०२ ॥ ____ यदि आगम प्रमाणसे ही उस शब्दब्रह्मकी सिद्धि मानी जायगी तब तो तिस प्रकार आगमसे भेदकी सिद्धि भी क्यों नहीं हो जावेगी ! पदार्थीको नाना सिद्ध करनेवाले " अत्यि अणंता जीवो " "ते कालाणू असंखदव्वाणि " " परमाणहि अणंतहि " "जीवादोणंत गुणा"" संसारिणो मुक्ताश्च" आदि आगम विद्यमान हैं । यदि बाधकोंसे रहित हो रहे