Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
णामात् । तदेवं गंधादिकृतप्रतिविधानतया दुरादारेकोत्करः शब्दे समस्तो नावतरतीति तद्वत्मासस्येंद्रियेण ग्रहणं निरारेकमवतिष्ठते क्या प्रतीतेरित्याह।
___ यदि मीमांसक यों कहें कि वृक्ष, पर्वत, आदिसे व्यवधानको प्राप्त हो रहे उन शब्दोंका फैलना कैसे नहीं हो जायगा ! अथवा वृक्षसे टकराकर जैसे डेल वहीं गिर पडता है, आगे नहीं जा पाता है, उसी प्रकार वृक्ष, भीति आदिसे टकराकर शब्द भी वहीं गिर जाना चाहिये, फैलना नहीं चाहिये । "कथं नु स्यात्" पाठ होनेपर यों अर्थ करलिया जाय कि वृक्षसे व्यवहित हो रहे उन शब्दोंका फैलजाना भला कैसे हो सकता है ? बताओ। इस प्रकार कहनेपर तो हमारा यही समाधान है कि गन्धद्रव्यके स्कन्धोंका भी तिस प्रकार टकराकर वहीं गिर जाना या नहीं फैलना अथवा फैलजाना जैसे नहीं होता है, उसी प्रकार पौद्गलिक शब्द स्कन्धोंका भी तिस प्रकार परिणाम हो जानेसे विसर्पण हो जाता है। कोई कोई मन्दशब्द विचारे मन्दगन्धके समान नहीं भी फैल पाते हैं। निमित्तोंके अनुसार नैमित्तिकभाव बनते है । तिस कारण इस प्रकार पौद्गलिक शब्दपर किये गये कटाक्षोंका गन्ध आदिके लिये किये गये मीमांसकोंके प्रतिविधानरूप करके उत्तर हो जाता है। अर्थात्-पौद्गलिक गन्ध, स्पर्श आदिका जो उत्तर आप देंगे वही शब्दके विषयमें हमारा उत्तर होगा। कानमें अधिक दूध या रेतके घुस जानेपर जैसे कान भर जाता है, उसी प्रकार पोद्गलिक शद्रोंके प्रविष्ट हो जानेपर कर्ण भरपूर हो जायंगे, इस कटाक्षका उत्तर भी गन्धद्रव्यके अनुसार कर लेना । सुगन्ध, दुर्गन्धके पौद्गलिक स्कन्धोंका प्रवेश हो जानेपर नासिका इन्द्रिय जैसे नहीं ठुस जाती है, वैसे ही कान इन्द्रिय भी शब्दसे नहीं भरपूर हो जाती है । पुद्गलके मोटे, छोटे, पतले, गाढे, स्थूल, सूक्ष्म आदि झटिति परिवर्तन हो जाते हैं। बादरबादर आदि छः प्रकारके पुद्गल मिथः परावर्तन कर जाते हैं । डेलके समान शब्दोंसे भी कानको चोट पहुंचना उस नासिकाके दृष्टान्तसे ही प्रतिविधान करने योग्य है । इस प्रकार समस्त शंकाओंका पुंज शद्वमें दूर हीसे अवतीर्ण नहीं हो पाता है। गन्धके उत्तरसे सम्पूर्ण शंकाऐं दूर फेंक दी जाती हैं। इस कारण उस गन्धके समान सम्बन्धित हुये ही शब्दका कर्ण इन्द्रियकरके ग्रहण होना निःसंशय प्रतिष्ठित हो जाता है । क्योंकि तिस प्रकार होता हुआ प्रतीत हो रहा है । इसी बातको प्रन्यकार श्रीविद्यानन्द बाचार्य अग्रिम बार्तिकद्वारा स्पष्ट कहते हैं।
तबारेकोत्करः सर्वो गन्धद्रव्ये समं स्थितः।
समाधिश्वेति न व्यासेनास्माभिरभिधीयते ॥ ९८ ॥
तिस शब्दमें उठायी गयी सम्पूर्ण शंकाओंकी राशि वैसीकी वैसी ही गन्धदम्यमें बाकर समानरूपसे उपस्थित हो जाती है और उस गन्धद्रव्यका समाधान जो किया जायगा वही समाधान पौद्गलिक शब्दद्रव्यमें लागू होगा । इस प्रकार संक्षेपसे कहकर हमने विस्तारके साथ इसका