Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वीचिन्तामणिः
मानेंगे वह भी विचार करनेपर निर्णीत नहीं हो सकेगी। क्योंकि सर्वथा कूटस्थ नित्य शब्दके अतिशयोंकी उत्पत्ति होनेका विरोध है, जैसे कि कूटस्थ नित्यपदार्थकी स्वात्माका नाश हो जाना विरुद्ध है। अपने पूर्वस्वभावोंका त्याग उत्तरस्वभावोंका प्रहण और स्थूल द्रव्यरूपसे स्थिरता इस प्रकारके परिणामवाले पदार्थमें तो उत्पाद, या विनाश बन सकते हैं । किन्तु मीमांसकोंके यहां माने गये सर्वथा नित्य शब्दमें नवीन अतिशयों या विशेषताबोंका आधान नहीं हो सकता है । देखो, पहिलेसे अंधेरेमें रखे हुये कलश, मूढा, दण्ड, आदिक परिणामी पदार्थोकी तो दीपक, विद्युत आदिकसे अभिव्यक्ति होना प्रसिद्ध हो रहा है । अतः परिणामी नहीं भी हो रहे पदार्थोकी अभिव्यक्ति हो जायगी, इस दोषका प्रसंग सर्वत्र ( कहीं भी नहीं ) नहीं लगता है । अर्थात् -परिणामी पदार्थकी परिणामी पदार्यसे अभिव्यक्ति सम्भवती है । शब्द अपने प्राचीन स्वभाव हो रहे नहीं सुने गयेपनका त्याग करे और नवीन श्रावणस्वभावको ग्रहण करे, तब कहीं परिणामी शब्दकी व्यंजकोंसे अभिव्यक्ति हो सकती है। अभिव्यंजक पदार्थ भी परिणामी होना चाहिये । दीपक अपने पहिलेके अघटप्रकाशपनस्वभावको छोडे और घटप्रकाशकपनको ग्रहण करे, तब कहीं घटका व्यंजक बने । अतः सर्वत्र तीन लक्षणवाले परिणामी पदार्थमें अभिव्यंज्य-अभिव्यंजकभाव बनता है । कूटस्थमें नहीं।
नित्यस्य व्यापिनो व्यक्तिः साकल्येन यदीष्यते । किं न सर्वत्र सर्वस्य सर्वदा तद्विनिश्चयः ॥ २८ ॥ खादृष्टवशतः पुंसां शादज्ञानाविचित्रता। व्यक्तेपि कात्य॑तः शद्वे भावे सर्वात्मके न किम् ॥ २९ ॥
हम मीमांसकोंसे पूछते हैं कि सभी भूत, भविष्य, वर्तमान, कालोंमें वर्त रहे नित्य शब्दकी तथा लोक, अलोकमें सर्वत्र ठसाठस ठहर रहे व्यापक शब्दकी यदि सम्पूर्णरूपसे अभिव्यक्ति हो जाना आप इष्ट करेंगे ? तो बताओ, सर्वदेशोंमें सर्वदा ही कर्ण इन्द्रियवाले सब जीवोंको उस शद्वका विशेषरूपसे निश्चय क्यों नहीं हो जाता है ? जब कि एक स्थानपर अभिव्यंजक द्वारा शब्द प्रकट हो चुका है, तो सर्वत्र, सर्वदा, सबको उस अखण्ड, निरंश शब्दके श्रवण करनेमें विलम्ब नहीं होना चाहिये । इसका उत्तर मीमांसक यदि यों कहें कि कृत्स्न ( परिपूर्ण ) रूपसे शर्के अभिव्यक्त हो जानेपर भी जीवोंके अपने अपने पुण्य, पापके वशसे शद्वसम्बन्धी ज्ञान होनेकी विचित्रता हो जाती है । जैसे कि गुरु, पुस्तक, विद्यालय, प्रबन्ध, आदिके एकसा ठीक ठीक होनेपर भी छात्रोंके न्यारी न्यारी जातिके क्षयोपशम होनेसे व्युत्पत्तियोंकी विचित्रता हो जाती है । इस प्रकार मीमांसकोंके कहनपर तो हम जैन आपत्ति देंगे कि जैसे शब्दको व्यापक और नित्य माना जाता है, वैसे ही लगे हाथ शब्दको सर्व पदार्थ आत्मक भी मानलिया जाय, अथवा सांख्य मत अनुसार “सर्व सर्वात्मकं "