Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ चोकवार्तिके
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स्मृति, जैमिनी सूत्र आदि बागमोंमें दूसरे मीमांसकोंने गुणवान् पक्काके द्वारा प्रतिपादितपना जो अमीट किया है, वह तो वेदका किनहीं किन्हीं विद्वानोंके प्रति प्रमाणपना साधनेमें एक दूसरा साधन उपस्थित हो जाता है । अथवा भळे प्रकार जानलिये गये बाधारहितपन हेतुसे भी उस प्रमाणपनको साधनेवाळे शापकोंका उत्कृष्ट समर्थन हो जावेगा। तिस कारण हमारे यहाँ और बापके यहाँ तिस सारिखा दूषित कारणजन्य या बाधासहित पौरुषेयपना वहां समीचीन श्रुतमें नहीं माना जाय । हां, अदुष्टकारणजन्यत्व, अपूर्वार्थत्व, बाधावर्जितत्व उस सदागममें घटित हो जाते हैं, जिसका कि वक्ता गुणवान् पुरुष है । वही कहा गया है कि " तत्रापूर्वार्थविज्ञान निश्चितं वाधवर्जितम् । अदुष्टकारणारचं प्रमाणं लोकसम्मतम् "।
मंत्रार्थवादनिष्ठस्यापौरुषेयस्य बाधनात् ॥ ७५॥ वेदस्यापि पयोदादिच्वनेनेष्फल्यदर्शनात् ।
कर्मप्रतिपादक मंत्रोंकी प्रशंसा करनेमें श्रद्धा लगा रहे अर्थवाद मंत्रोंके अपौरुषेयताकी बाधा हो जाती है । वे अपौरुषेय होते हुये भी बाधारहितपन नहीं होनेके कारण तुम्हारे यहां प्रमाण नहीं माने गये हैं। तथा अपौरुषेयपना कोई प्रमाणताका साधक नहीं है । चोरी, व्यभिचार, आदि कुकाके उपदेश या गाली, कुवचन, आदि भी दुष्टसम्प्रदाय अनुसार सदासे चले आरहे हैं। एतावता ही उनमें प्रामाण्य नहीं आजाता है। बादलोंका गर्जना, बिजलीका कडकना, समुद्रका पूत्कार करना इत्यादि ध्वनियोंका निष्फलपना देखा जाता है । अतः तुम्हारे माने हुये अपौरुषेय वेदको भी निष्फलपना प्राप्त होगा अकृत्रिमपना या प्राचीनता अथवा अर्वाचीनता कोई समीचीनताके प्रयोजक नहीं हैं। पुरुषोंके द्वारा नहीं बनाये गयेपनका शद्रोंमें कोई मूल्य नहीं है। आंधीमें या वृक्ष गिरनेमें अनेक अपौरुषेय शब्द व्यर्थ होते रहते हैं। कोई कानी कोडीमें भी नहीं पूंछता है ।
सत्यं श्रुतं सुनिर्णीतासंभवद्वापकत्वतः ॥ ७६ ॥ प्रत्याक्षादिवदित्येतत्सम्यक् प्रामाण्यसाधनं । कदाचित्स्यादप्रमाणं शुक्तो रजतबोधवत् ॥ ७७ ॥
अतः यहांतक यह सूचा सिद्धान्त पुष्ट दुबा कि शब्द आत्मक या बान आत्मक श्रुत (पक्ष) सत्य है, ( साध्य ) बाधकोंके असम्भव होनेका मळे प्रकार निर्णय किया जा चुका होनेसे ( हेतु ), प्रत्यक्षा, अनुमान आदिके समान (अन्वयदृष्टान्त ) इस प्रकार यह प्रमाणपनेका साधन समीचीन है । अर्थात्-शास्त्रोंकी समीचीनताको साधने के लिये बाधकोंके असम्भवका अच्छा निर्णय होना रूप हेतु निर्दोष है । हां, कभी कभी छूटे शास्त्र अप्रमाण भी हो जाते हैं। जैसे कि सीपमें हुआ