Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थलोकवार्तिके
प्रकाश रहे हैं । अर्थ और शब्दका कोई अजहत् सम्बन्ध भी नहीं है । मोदक, लक्षमुद्रा, रत्न, सुमेरु, समुद्र आदि शद्बोंके बोले जानेपर भी वहां वे मोदक आदिक अर्थ नहीं दीखते हैं । एवं क्षीर, घृत, बूरा, मिश्री, आदिके रसोंका तारतम्यपूर्वक शान, सुख, होनेपर भी उनके वाचक शब्द नहीं सुने जा रहे हैं । शद तो जगत्में संख्यात ही है। किन्तु प्रमेय और प्रमाण अनन्त हैं। अतः शबोंद्वारा समझाने योग्य ज्ञानसे अनन्तगुणा ज्ञान अनमिलाप्य पड़ा हुआ है । शब्दयोजनासे रिक्त पडे हुये मतिज्ञानको प्रन्थकार स्वयं बढाकर निवेदन करे देते हैं, जिससे कि यह प्रमेय और भी अधिक स्पष्ट हो जायगा।
वाग्रूपता ततो न स्यायोक्ता प्रत्यवमर्शिनी ।
मतिज्ञानं प्रकाशेत सदा तद्धि तया विना ॥ ९० ॥
तिस कारणसे सिद्ध होता है कि जो शद्वानुविद्धवादियोंने ज्ञानमें वागरूपताको ही विचार करनेवाला कहा था, वह युक्त नहीं है । क्योंकि उस शब्दस्वरूपपनके विना भी वह मतिज्ञान नियमसे सदा प्रकाश करता रहता है । इन्द्रिय और मनसे जो ज्ञान होते हैं । वे अर्थविकल्पस्वरूप आकारसे सहित अवश्य हैं । किन्तु शब्दानुविद्ध नहीं हैं। भले ही कोई अपने मतिज्ञानको दूसरों के प्रति प्रकट करनेके लिये यह काला रूप है, मेरी आत्मामें पीडा है, पेडा मीठा है, ऐसा निरूपण कर दे, किन्तु विचार करनेपर यह सब श्रुतज्ञान हो जायगा । मतिज्ञानके साथ अविनाभाव रखनेवाले श्रुतज्ञानमें ही शद्वयोजना लगी है। सविकल्पक मति, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान ये सब स्वकीय शरीरमें अवक्तव्य हैं । श्रुतज्ञानका अल्पभाग ही शब्दयोजनाको धारता है ।
न हींद्रियज्ञानं वाचा संसृष्टमन्योन्याश्रयप्रसंगात् । तयाहि । न तावदज्ञात्वा वाचा संसृजेदतिप्रसंगात् । ज्ञात्वा संसृजतीति चेत् तेनैव संवेदनेनान्येन वा ? तेनैव चेदन्योन्याश्रयणमन्येन चेदनवस्थानं ।
इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुआ मतिज्ञान तो शब्दोंके साथ संसर्गयुक्त हो रहा नहीं है । अन्यथा अन्योन्याश्रय दोष हो जानेका प्रसंग होगा । इसीको स्पष्ट कर कहते हैं कि पहिले नहीं जानकर तो वचनोंके साथ ज्ञानका संसर्ग नहीं हो सकेगा, क्योंकि अतिप्रसंग हो जायगा। अर्थात्-विना जाने ही शद्बोंका संसर्ग लग जानेसे तो चाहे जिस अज्ञात पदार्थको वचनोंद्वारा बोल दिया जायगा। कीट, पतंग, पशु, पक्षी, बालक, मी अज्ञात अनन्त पदाथोके शद्वयोजक बन जायंगे । यदि इस अतिप्रसंगके निवारणार्थ पदार्थको जानकरके शब्दका संसर्ग हो जाता है, इस प्रकार मानांगे, तब तो हम पूंछेगे कि उस ही शब्दसंसृष्ट होने वाले सम्वेदन करके ज्ञान होना मानोगे ? अथवा क्या अन्य किसी ज्ञानकरके इंद्रियज्ञानको जानकर उसके साथ वचनोंका संसर्ग होना इष्ट करोगे ? बताओ । यदि प्रथमपक्ष अनुसार उस ही ज्ञानकरके जान लेना माना जायगा तब तो