Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
अन्योन्याश्रय दोष आता है। क्योंकि उसी ज्ञानसे इन्द्रियज्ञानका जानना सिद्ध होय और इन्द्रिय ज्ञान हो चुकनेपर उसका जानना सिद्ध होय अर्थात् शद्वका संसर्ग हो चुकनेपर ज्ञान होय और ज्ञान होचुकनेपर शद्वका संसर्ग होना तो पक्ष ले रक्खा ही है । आत्माश्रय दोष भी लागू होगा । यदि द्वितीय पक्षके अनुसार अन्य सम्बेदन करके इन्द्रियज्ञानको जाना जायगा, तब तो अनवस्था होगी, क्योंकि अन्यज्ञानको भी जानकर वचनोंका संसर्ग तब लगाया जायगा जब कि तृतीयज्ञानसे उस अन्य ज्ञानको जान लिया जायगा । इस ढंगसे ज्ञानोंके ज्ञापक चतुर्थ, पंचम, आदि ज्ञानोंकी आकांक्षा बढती बढती दूर जाकर भी अवस्थिति नहीं होगी । अतः कथमपि इन्द्रियजन्य ज्ञानोंके साथ वचनों का संसर्ग नहीं होता है । वे अपने डीलमें अवाच्य होकर प्रतिष्ठित हो रहे हैं। यह सिद्धान्त पुष्ट हुआ ।
I
६३७
अत्र शङ्खाद्वैतवाचिनामङ्गत्वम्म्रुपदर्श्य दूषयन्नाह ।
इस अवसर पर शद्बाद्वैतवादी विद्वानोंका अज्ञपना दिखलाकर उनको दोषावन्न करते हुये आचार्य महाराज कहते हैं ।
वैखरीं मध्यमां वाचं विनाशज्ञानमात्मनः । स्वसंवेदनमिष्टं नोन्योन्याश्रयणमन्यथा ॥ ९१ ॥ पश्यंत्या तु विना नैतद्यवसायात्मववेदनम् । युक्तं न चात्र संभाव्यः प्रोक्तोन्योन्यसमाश्रयः ॥ ९२ ॥
शद्वाद्वैतवादियोंका जो स्वमन्तव्य है, उसको उनके ही मुखसे सुनिये कि वैखरी और मध्यमा नामक दो वाणियों के विना तो हमने भी इन्द्रियजन्य ज्ञान इष्ट किया है । और आत्माका स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष भी वैखरी और मध्यमावाणीकी शब्दयोजनाके विना ही अमीष्ट किया है । अन्यथा पूर्वमें दिया गया अन्योन्याश्रय दोष हमारे ऊपर लग जायगा । किन्तु पश्यन्ती - नामक वाणके बिना तो इन्द्रियजन्य मतिज्ञान और आत्माका स्वसम्बेदन प्रत्यक्ष ये निश्चय आत्मकं ज्ञान होना युक्त नहीं हैं । इस पश्यन्ती वाणीसे इन्द्रियजन्यज्ञान और आत्मज्ञानको अनुविद्ध माननेपर यहां पहिले अच्छा कहा गया अन्योन्याश्रय दोष तो नहीं सम्भवता है । भावार्थ - राद्वाद्वैतवादियोंका अनुभव है कि सम्पूर्ण ज्ञान शद्वानुविद्धपना स्वरूपसे ही सविकल्पक है। श्रोत्र इन्द्रियसे ग्रहण करने योग्य मोटी वैखरी वाणी और अन्तर्जल्पस्वरूप मध्यमावाणीसे ज्ञानको संसृष्ट माननेपर तो अन्योन्याश्रय दोष होता है। जान चुकनेपर तो शद्वसंसर्ग होय और शद्वसंसर्ग हो चुकनेपर जाना जाय, किन्तु अकार, ककार, आदि वर्ण या पद, वाक्य, प्रकृति, प्रत्यय आदिके विभागोंसे रहित हो रही पश्यन्ती नामक वाणीके विना कोई भी इन्द्रियज्ञान अथवा आत्मज्ञान नहीं हो पाता है । जैसे कि आकाशक