Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 645
________________ तत्वार्थचिन्तामणिः ६३१ तथा उसीके समान और भी यथायोग्य अवसरपर आगे इस ग्रन्थ में भी श्री गुरुवर्य समन्त• भद्रस्वामीकी शिक्षा के अनुसार वह विस्तार कर दिया जावेगा । इस तस्वार्थ- मोक्षशास्त्र में प्रतिपादित किये गये और परमागमके विषयभूत हो रहे सूक्ष्मतत्त्वोंका सत्र स्थलोंपर युक्तिकरके साधन कर दिया जावेगा। अतः मीमांसक, नैयायिक आदिकोंके माने हुये आगमप्रमाण युक्त नहीं हैं । स्याद्वादियोंकर के कहा गया द्रव्यश्रुत और भावश्रुत श्रेष्ठयुक्तियोंसे सिद्ध हो जाता है । प्रोक्तभेदप्रभेदं तच्छ्रुतमेव हि तद्दृढं । प्रामाण्यमात्मसात्कुर्यादिति नश्चिंतयात्र किम् ॥ ८४ ॥ वह श्रुत ही इस सूत्रमें दो, अनेक, बारह मेद प्रभेदोंसे युक्त होता हुआ भले प्रकार कह दिया गया है । और वह श्रुत ही नियमकरके दृढ प्रमाणपने को अपने अधीन कर सकेगा । इस प्रकार अ यहां हमको अधिक चिन्ता करके क्या प्रयोजन पडा है ! भावार्थ – अधिक परिश्रम के विना ही जब जैनेन्द्राभिमत द्रव्य, भाव, श्रुत सिद्ध हो जाते हैं तो इसके लिये इमको अधिक चिन्ता नहीं करनी चाहिये । तदेवं श्रुतस्यापौरुषेयतैकां तमपाकृत्य कथंचिदपौरुषेयत्वेपि चोदनायाः प्रामाण्यसाधनासंभवं विभाव्य स्याद्वादस्य च सुनिश्चितासंभवाधकत्वं प्रामाण्यसाधनं व्यवस्थाप्य सर्वयैकांतानां तदसंभवं भगवत्समंतभद्राचार्यन्यायाद्भावाद्येकांतनिराकरणमन जादावेध वक्ष्यमाणाच्च न्यायात्संक्षेपतः प्रवचनप्रामाण्यदार्व्यमवधार्य तत्र निश्चितं नामात्मसात्कृत्य संप्रति श्रुतस्वरूपप्रतिपादकम कलंकग्रंथ मनुवाद पुरस्सरं विचारयति । तिस कारण इस प्रकार 'श्रुतकी मीमांसकों द्वारा गढी गयी अपौरुषेयताके एकान्तका खण्डन कर और विधिन्ति वेदवाक्योंके अपौरुषेयपना होते हुये भी कैसे भी प्रामाण्यकी सिद्धिके असम्भवका विचार कर तथा स्याद्वादसिद्धान्त के ही प्रमाणपनेकी वस्तुभूत साधन हो रही भले प्रकार निश्चित कियी गयी बाधकोंकी असम्भवताको व्यवस्थापित कर एवं च सर्वथा एकान्तवादों को उस प्रामाण्य के असम्भवका माव, अभाव, नित्यपन, अनित्यपन, आदि एकान्तोंके निराकरण करनेमें प्रवीण हो रहे भगवान् श्री समन्तभद्राचार्यके न्यायसे निवेदन कर और भविष्य में सामन्तभद्रकी शिक्षा अनुसार कहे जानेवाले न्यायसे संक्षेपकरके यथार्थ प्रवचनके प्रमाणपनकी दृढताका निर्णय कराकर उसमें निश्चितपनेको भला अपने अधीन कर, अब इस समय करनेवाले श्री अकलंकाचार्य के ग्रन्थका अनुवादपूर्वक विचार करते हैं । भावार्थ - यहांतक श्रुतकी अपौरुषेयताका खण्डन करा दिया गया है । वेदको अपौरुषेय माननेपर भी मेघध्वनि आदिके समान प्रमाणपनेकी सिद्धि होना असम्भव है । इसका भी विचार कर दिया गया है। तथा श्रुतके स्वरूपको प्रतिपादन

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