Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
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प्रमाण बन जायगा, कोई क्षति नहीं दीखती है । कारणके विना ही वेदके ऊपर अकृत्रिमपनेका अशोभन बोझ क्यों व्यर्थ लादा जाता है ! अनुमान आदिके समान वैदिक वचनोंमें भी अपने बाधक कारणोंका रहितपना प्रमाणताका सम्पादक है।
पुंसो दोषाश्रयत्वेन पौरुषेयस्य दुष्टता ॥६॥ शक्यते तजसंविचरतो वाधनशंकनं । निःसंशयं पुनर्बाधवर्जितत्वं प्रसिध्यति ॥ ६९ ॥ कर्तृहीनवचो वित्तेरित्यकृत्रिमतार्थकृत् । परेषामागमस्यष्टं गुणवद्वक्तृकत्वतः ॥ ७० ॥ साधीयसीति यो वक्ति सोपि मीमांसकः कथं । समत्वादक्षलिंगादेः कस्यचिद्दष्टता दृशः ॥ ७१ ॥ शद्वज्ञानवदाशंकापत्तेस्तजन्मसंविदः । मिथ्याज्ञाननिमिचस्य यद्यक्षादेस्तदा न ताः ॥ ७२ ॥ तादृशः किं न वाक्यस्य श्रुत्याभासत्वमिष्यते।
मीमांसक कहते हैं कि जगत्के पुरुष तो राग, द्वेष, अज्ञान, खार्थ, पक्षपात, ईर्षा आदि अनेक दोषोंके आश्रय हो रहे हैं । अतः पुरुषोंके प्रयत्नोंसे उत्पन्न हुये पौरुषेय वचनोंको दुष्टता है। शवोंको बनानेवाले हेतु पुरुष दुष्ट हैं | अतः ऐसे उन दोषयुक्त हेतुओंसे उत्पन्न हुये शादबोधके बाधकोंकी शंका की जा सकती है। सच पूंछो तो संशयरहित होकर बाधवर्जितपना तो फिर कर्ताहीन अपौरुषेय वंचनोंसे उत्पन्न हुयी सम्वित्तिको ही प्रसिद्ध हो रहा है। इस कारण वेदका अकृत्रिमपना विशेष प्रयोजनका साधन कर रहा है । वेदका अकृत्रिमपना व्यर्थ नहीं है। पुरुषको कर्ता माननेपर बाधकोंकी या दोषोंकी शंका रही आती है। किन्तु " न रहे बांस और न बजे बांसुरी" इस लोकनीतिके अनुसार वेदका कर्ता ही नहीं मानना श्रेष्ठ मार्ग है । दूसरे वादी जैनोंके यहां आगमका गुणवान् वक्ता द्वारा उच्चारित शवोंसे जन्यपना होनेके कारण प्रमाणपना इष्ट किया गया है । इस क्लेशसाध्य मार्गकी अपेक्षा वेदका अकृत्रिमपना अधिक श्रेष्ठ है । मायावी, बकभक्त और फुटाटोप दिखानेवाले पुरुष इस जगत्में बहुत हैं । गुणवान् पुरुषोंका निर्णय करना दुःसाध्य है.। दोनोंकी सम्भावना उनमें बनी रहती है। तभी तो हमने वेदोंको नित्य मानलिया है।