Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
न च केवलपूर्वत्वात्सर्वज्ञवचनात्मनः । श्रुतस्य मतिपूर्वत्वनियमोत्र विरुध्यते ॥ ८ ॥ ज्ञानात्मनस्तथाभावप्रोक्ते गणभृतामपि । मतिप्रकर्षपूर्वत्वादर्हत्प्रोक्तार्थसंविदः ॥ ९ ॥
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सर्व प्रतिपादित वचनस्वरूप श्रुतको केवलज्ञानपूर्वक हो जानेसे इस प्रकरणमें श्रुतको मतिपूर्वकप के नियमका कोई विरोध नहीं पडता है । क्योंकि ज्ञान आत्मक श्रुतका श्री उमास्वामी महाराजने तिस प्रकार मतिज्ञानपूर्वकपना अच्छे ढंगसे कहा है । ऐसा होनेपर सभी श्रुतज्ञानों को साक्षात् या परम्परासे मतिपूर्वकपना सध जाता है । श्रीअर्हत भगवानका द्रव्यश्रुत तो भले ही केवलज्ञानपूर्वक रहे, कोई क्षति नहीं है । केवली महाराजके भावश्रुतज्ञान हो जानेका तो असम्भव है । शेष सर्वजीवों के मतिज्ञानपूर्वक ही श्रुतज्ञान होता है । चार ज्ञानको धारनेवाले गणधर महाराजोंके भी अतभाषित अर्थकी श्रुतज्ञानरूप सम्वित्तिको प्रकर्षमतिज्ञानपूर्वकपना है 1 अर्थात् - श्री अईतके सर्वागसमुद्भव अर्धमागधी भाषाका कर्ण इन्द्रियोंसे बढिया मतिज्ञान कर दी पीछे वाच्य और गम्यमान असंख्य प्रमेयोंका श्रुतज्ञान गणधरदेव करते हैं । गणधरदेवके यद्यपि प्रथमसे ही श्रुतज्ञान हो चुका है। फिर भी अर्हतदेवने केवलज्ञानद्वारा जिन सूक्ष्मपर्यायोंका प्रत्यक्ष कर लिया है, उन प्रज्ञापनीय, अनमिलाप्य, सूक्ष्मपर्यायोंका श्रीतीर्थकर महाराजकी दिव्यध्वनिके निमित्त गणधर की आत्मामें विशेषज्ञान हो जाता है । तभी तो असंयमी चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सौधर्म इन्द्र, लौकान्तिकदेव, सर्वार्थसिद्धि के देवोंके श्रुतज्ञान और संयमी मुनि महाराजके पूर्ण श्रुतज्ञान तथा गणधरों श्रुतज्ञान एवं क्षपकश्रेणीके श्रुतज्ञानोंमें अविभागप्रविच्छेदों का तारतम्य है । केवलज्ञान के अविभागप्रतिच्छेद जैसे उत्कृष्ट अनन्तानन्त संख्यावाले नियत हैं, उस प्रकार पूर्ण श्रुतज्ञानके अविभागप्रतिच्छेद एक संख्या में नियत नहीं हैं। न्यून, अधिक, भी हैं। हां, मोटे रूपसे इन सबको पूर्णश्रुतज्ञानी कह दिया जाता है। जैसे शास्त्रीय परीक्षाके तेतीस से प्रारम्भ कर सौ लब्धाङ्क तक प्राप्त करनेवाले सभी छात्रोंको एकसा " शास्त्री " कह देते हैं । अभिप्राय यह है कि भगवान्के शद्वोंको कर्ण इन्द्रियसे अच्छा सुनकर श्रावणमतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान गणधरोंके भी होता है । गणधरोंके लिये कोई न्यारा ( स्पेशल ) मार्ग नहीं है ।
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श्रुतज्ञानं हि मतिपूर्वं साक्षात्पारंपर्येण वेति नियम्यते न पुनः शद्वमात्रं यतस्तस्य केवल पूर्वत्वेन विरोधः स्यात् । न च गणधरदेवादीनां श्रुतज्ञानं केवलपूर्वकं तन्निमित्तशद्धविषयमतिज्ञानातिशयपूर्वकत्वात्तस्येति निरवद्यं ।