Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

View full book text
Previous | Next

Page 615
________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः बाह्य ज्ञान प्रभेदरूप है । और अट्ठारह हजार, छत्तीस हजार, आदि मध्यम पदोस्वरूप आचारांग, सूत्रकृतांग आदि वचनोंसे उत्पन्न हुआ अंगप्रविष्ट झामको बारह प्रभेदसहितपना है। इस कारण यह शब्दस्वरूप श्रुत उपचरित प्रमाण है । इस शब्दश्रुतके द्रव्य रूपसे दो भेद तथा अनेक और बारह प्रभेद यहां ही ग्रन्थमें स्पष्ट कह दिये जायेंगे। ये सब भेद शब्दस्वरूप द्वादशांग वाणी और अंगबाह्यवाणीके हैं । इतने संख्यात अक्षर या पदों अथवा संयुक्त पुनरुक्त पदोंसे उत्पन्न हुआ श्रुतज्ञान अनन्त है। विभेदमनेकद्वादशभेदमिति प्रत्येकं भेदशब्दस्याभिसंबधात् तथा चतुर्भेदो वेदः षडंगः सहस्रशाखः इत्यादि श्रुताभासनिवृत्तिरममाणत्वप्रत्यक्षत्वादिनिवृत्तिश्च कृता भवति कथमित्याह। ____द्वन्द्व समासके आदि या अन्तमें पडे हुये पदका प्रत्येकपदमें सम्बन्ध हो जाता है। अतः यहां भी “ व्यनेकद्वादशभेदम् " इस समासित पदके अन्तमें पडे हुये भेदशब्दका तीनोंमें समन्तात् सम्बन्ध हो जानेसे दो भेद, अनेक भेद और बारह भेद ऐसा अर्थ हो जाता है । और तैसा होनेपर अतिप्रसङ्गोंकी व्यावृत्ति कर दी जाती है । अन्यमती विद्वान् वेदरूप श्रुतके ऋग्, यजुर्, साम, अथर्व, ये चार मेद मानते हैं, अथवा चार वेदोंके शिक्षा, व्याकरण, कल्प, निरुक्त, छन्दः, ज्योतिष, ये छह अंग स्वरूप प्रभेद मानते हैं, या वेदोंकी हजार शाखायें स्वीकार करते हैं। कूर्मपुराणमें वेदोंकी शाखाओंका इस प्रकार वर्णन है। " एकविंशतिभेदेन ऋग्वेदं कृतवान् पुरा। शाखानां तु शतेनाथ यजुर्वेदमथाकरोत् । सामवेदं सहस्रेण शाखानां च विभेदतः। आयवोणमथो वेदं विभेदनवकेन तु"। भगवान् व्यासने ऋग्वेदके प्रथम इक्कीस भेद किये, पीछे यजुर्वेदके १०० सौ भेद, सामवेदके हजार १००० भेद और पीछे अथर्वके नौ ९ भेद किये। इस कूर्मपुराणके लेखानुसार वेदोंकी सब शाखा ग्यारह सौ तीस ११३० हैं। कोई कोई ११३१ या ११३७ भी मानते हैं । इतर पण्डित आत्मतत्त्व प्रतिपादक ईश, केन, तित्तिरि, आदि दश उपनिषदों या अन्य उपनिषदोंको भी स्वीकार करते हैं । इत्यादि भेद प्रभेदवाले श्रुत आभासकी निवृत्ति उक्त भेद प्ररूपणसे हो जाती है । " तत्प्रमाणे " सूत्रसे प्रमाणपदकी अनुवृत्ति चले आनेसे दो, अनेक, बारह भेदवाले श्रुतके अप्रमाणपनेकी निवृत्ति हो जाती है। और “ आये परोक्षम् " कह देनेसे श्रुतको प्रत्यक्षप्रमाणपनेकी निवृत्ति हो जाती है । श्रुतज्ञानमें अवग्रह, ईहा आदिपना भी निषिद्ध हो जाता है। " मतिपूर्व " ऐसा कह देनेसे अवधि आदि प्रत्यक्षप्रमाणरूप निमित्तोंसे श्रुतकी उत्पत्ति होना प्रतिषिद्ध कर दिया गया है। तथा श्रुतज्ञान किसी भी ज्ञानको पूर्ववर्ती नहीं मानकर स्वतंत्र तथा मति या केवलज्ञानके समान उपज बैठता है, इस अनिष्ट प्रसंगकी भी " मतिपूर्व" कह देनेसे निराकृति कर दी गयी है । कैसे या किस प्रकार कर दी गयी है । इसकी उपपत्तिको खयं ग्रन्थकार स्पष्ट कहते हैं, सो सुनलो । 16

Loading...

Page Navigation
1 ... 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702