Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 614
________________ ६०० तत्त्वार्थो वार्तिके कुतः पुनरुपचारः तत्कारणत्वात् । श्रुतज्ञानकारणं हि प्रवचनं श्रुतमित्युपचर्यते । मुख्यस्य श्रुतज्ञानस्य भेदप्रतिपादनं कथमुपपन्नं तज्ज्ञानस्य भेदप्रभेदरूपत्वोपपत्तेः द्विभेदप्रवचनजनितं हि ज्ञानं द्विभेदं अंगबाह्यप्रवचनजनितस्य ज्ञानस्यांगबाह्यत्वात् अंगप्रविष्टवचनजनितस्य चांगप्रविष्टत्वात् । 1 उपचार कैसे किया 19 फिर आप आचार्य महाराज आप यह बताओ कि शद्वमें श्रुतपनेका गया ? " गंगायां घोषः " यहां गंगाका निकटवर्त्ती होनेसे गंगापदकी गंगातीरमें लक्षण हो जाती है । शूर, क्रूर, चंचल, मनुष्य में वैसे धर्मोका सादृश्य होनेसे सिंह, भेडिया या अग्निका उपचार सहायता आदि के लिये कर दिया जाता है । वैसा यहां उपचारका निमित्त और फल क्या है ? बताओ। इसपर आचार्य महाराज उत्तर कहते हैं कि श्रुतज्ञानका कारण वह शद्व है । " तस्य कारणं ऐसा होनेसे शद्वमय श्रुत है । क्योंकि श्रोताओं के श्रुतज्ञानका कारण नियमसे प्रवचन है । अतः वह शब्द उपचारसे श्रुतप्रमाण कह दिया जाता है । कार्यके धर्म कारण में होने ही चाहिये । बहुव्रीहि समास करके दूसरा अर्थ भी निकाल लेना । यदि कोई यहां यों पूंछे कि जब दो आदि भेद प्रभेद शद्वमय श्रुतके सम्भवते हैं, तो श्रुतज्ञानके भेदप्रभेदोंका उक्त रीत्या प्रतिपादन करना भला कैसे युक्तियुक्त सधेगा ? बताओ । इसपर हमारा यही उत्तर कि भेदप्रभेदवाले उन शब्दोंसे उत्पन्न हुये श्रुतज्ञानके भी उन दो आदिकोंको भेदप्रभेद-स्वरूपपना बन जाता है । दो भेदवाले शद्वमय प्रवचनसे उत्पन्न हुआ श्रुतज्ञान इन अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट भेदोंसे दो भेदवाला है । मध्यमपदके अक्षरोंका भाग देनेपर शेष बच रहे आठ करोड एक लाख आठ हजार एकसौ पचहत्तर ( ८०१०८१७५ ) अक्षरोंका स्वरूप शद्वमय श्रुतप्रवचनसे उत्पन्न हुआ ज्ञान अंगबाह्य है । और बारह अंगों में प्रविष्ट हो रहे कुछ न्यून १८४४६७४४०७३७०९१११६१५ इतने अपुनरुक्त अक्षर अथवा इनसे कितने ही ( संख्याते ) गुने पुनरुक्तअक्षरों या एकसौ बारह करोड तिरासी लाख अट्ठावन हजार पांच ( ११२८३५८००५ ) मध्यम पदोंस्वरूप शद्वश्रुत प्रवचनसे उत्पन्न हुआ ज्ञान तो अंगप्रविष्ट है । यों दो प्रकारके प्रवचनसे दो भेदवाला श्रुतज्ञान युक्त बन जाता है। तथानेकद्वादशप्रभेदवचनजनितं ज्ञानमनेकद्वादशप्रभेदकं कालिकोत्कालिकादिवचनजनितस्यानेकप्रभेदरूपत्वात्, आचारादिवचनजनितस्य च द्वादशप्रभेदत्वादिदमुपचरितं च श्रुतं यद्वादशभेदमिव वक्ष्यते । तथा अंगबाह्य भेदके अनेक प्रभेद और अंगप्रविष्ट भेदके बारह प्रभेदस्वरूप वचनसे जन्म लेता हुआ ज्ञान तो अनेक प्रभेद और बारह प्रभेदवाला व्यवहृत होता है । देखिये । स्वाध्यायकाल में नियत कालवाले वचन कालिक हैं । और स्वाध्याय कालके लिये अनियत कालरूप वचन उत्कालिक हैं । इनके भेद सामायिक, उत्तराध्ययन आदिक हैं । ऐसे कालिक आदि बच्चनोंसे उत्पन्न हुआ अंग

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