Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
૧
प्रत्यक्षं प्रत्यभिज्ञा चेद्ग्रहीतग्रहणं भवेत् । ततोन्यचेत्तथाप्येवं प्रमाणांतरता च ते ॥ ७४ ॥
यदि प्रत्यभिज्ञानको प्रत्यक्षप्रमाण माना जायगा तो वह गृहीतका ग्राही ही होगा । पहिले के प्रत्यक्षको तो प्रत्यभिज्ञान मानोगे नहीं, किन्तु पूर्व पूर्वमें देखे हुये पदार्थका स्मरण कर उससे सहकृत इन्द्रियां आपके यहां प्रत्यभिज्ञानरूप प्रत्यक्षको उत्पन्न करेंगी, ऐसी दशामें वह प्रत्यभिज्ञान गृहीतका ग्राही ही सिद्ध हुआ । तथा यदि उस प्रत्यक्षसे अन्यज्ञानको प्रत्यभिज्ञान मानोगे तो भी इस प्रकार तुम्हारे मतमें इष्ट प्रमाणोंसे अतिरिक्त अन्य प्रमाणको माननेका प्रसंग होवेगा । यह इष्ट प्रमाणसंख्याका व्याघात प्राप्त हुआ ।
न ननुभूतार्थे प्रत्यभिज्ञा सर्वथातिप्रसंगात् । नाप्यस्मर्यमाणे यतो ग्रहीतग्राहिणी न भवेत् ।
पहिले सर्वथा नहीं अनुभव किये गये अर्थमें तो प्रत्यमिज्ञान नहीं प्रवर्त्तता है । क्यों कि अतिप्रसंग हो जायगा। यानी नवीन पदार्थोंको देखकर भी सदा प्रत्यभिज्ञान होते रहेंगे । और नहीं स्मरण किये जा रहे अर्थमें भी प्रत्यभिज्ञान नहीं प्रवर्तता है । जिससे कि प्रत्यभिज्ञान गृहीतग्राही न होता । भावार्थ - अनुभव और स्मरणसे जान लिये गये अर्थ में प्रत्यभिज्ञानकी प्रवृत्ति होती है । अतः वह गृहीतग्राही ही है।
प्रत्यक्षेणाग्रहीतेर्थे प्रत्यभिज्ञा प्रवर्तते । पूर्वोत्तरविवर्तैकग्राह (चेन्नाजत्वतः ॥ ७५ ॥
यदि मीमांसक भट्ट यों कहें कि पूर्वपर्याय और उत्तरपर्याय में रहनेवाले एकपनका ग्रहण प्रत्यभिज्ञान करता है । उस एकपनको प्रत्यक्ष और स्मरणने नहीं जान पाया है । अतः प्रत्यक्षसे अग्रहीत अर्थ प्रत्यभिज्ञा प्रवर्त्त रही है। आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना । क्यों कि तुम्हारे मतमें प्रत्यभिज्ञानको इन्द्रियोंसे जन्यपना अभीष्ट किया है। जो इन्द्रियोंके साथ अन्वयव्यतिरेक रखता है । वह इन्द्रियजन्य ही मानना चाहिये । किन्तु इन्द्रियोंकी उस एकत्वमें प्रवृत्ति नहीं है ।
पूर्वोत्तरावस्थयोर्यद्व्यापकमेकत्वं सत्र प्रत्यभिज्ञा प्रवर्तते न प्रत्यक्षेण परिच्छिन्नेवस्थामात्रे स्मर्यमाणेनुभूयमाने वा ततो न ग्रहीतग्राहिणी चेत् तत् नेन्द्रियजत्वात्तस्याः कथमन्यथा प्रत्यक्षेतर्भावः । न चेंद्रियं पूर्वोत्तरावस्थयोस्तीत वर्तमानयोः वर्तमाने तदेकत्वे प्रवर्तितुं समर्थ वर्तमानार्थग्राहित्वात् संबद्धं वर्तमानं च गृह्यते चक्षुरादिभिरिति वचनात् ।
पूर्वपक्षी कहता है कि पूर्व अवस्था और उत्तर अवस्थामें जो एकपना व्याप रहा है, उस एक प्रत्यभिज्ञा प्रवर्तती है । किन्तु प्रत्यक्षसे जान ली गयी, अनुभवमें आ रही, केवल वर्तमान अवस्था में अथवा स्मरण की जा रही, जानी जा चुकी केवल पूर्व अवस्थामें तो प्रत्यमि नहीं प्रवर्तती