Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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- तत्त्वार्थचिन्तामणिः
य एवाहं किंचिदिति वस्तुमात्रमिंद्रियानिद्रियाभ्यामद्राक्षं स एव तद्वर्णसंस्थानादि सामान्यभेदेनावगृह्णामि तद्विशेषात्मनाकांक्षामि तदेव तथामि तदेव धारयामीति क्रमशः खयं दर्शनावग्रहादीनामिंद्रियानिन्द्रियोत्पाद्यत्वं प्रतीयते प्रमाणभूतात्मत्यभिज्ञानात् क्रममाव्यनेकपर्यायव्यापिनो द्रव्यस्य निश्चयादित्युक्तप्रायम् ।
जो ही मैं " कुछ है", इस प्रकार महासत्तास्वरूप केवल सामान्य वस्तुको इन्द्रिय अनिन्द्रियोंके द्वारा देख चुका हूं (दर्शन उपयोग ) सो ही मैं रूप आकृति रचना आदि सामान्य भेदोंकरके उस वस्तुका अवग्रह कर रहा हूं ( अवग्रह ) तथा वही मैं अन्य विशेष अंश स्वरूपकरके उस वस्तुका आकांक्षारूप ज्ञान कर रहा हूं (ईहा ) तथा वही मैं तिस प्रकार ही है, इस ढंगसे उसी वस्तुका निश्चय कर रहा हूं ( अवाय ) एवं वही मैं उसी वस्तुकी कालान्तरतक स्मरण करने योग्यपनसे धारणा कर रहा हूं (धारणा)। इस प्रकार क्रमसे दर्शन, अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा, बानोंका इन्द्रिय अनिन्द्रियोंके द्वारा उत्पत्ति योग्यपना स्वयं प्रतीत हो रहा है। वही एक आत्मा क्रमसे दर्शन और अनेक ज्ञानोंको उत्पन्न करता है। प्रमाणभूत सिद्ध हो रहे प्रत्यभिज्ञानसे क्रमसे होनेवाली अनेक पर्यायोंमें व्यापनेवाले द्रव्यका निश्चय हो रहा है। इसको हम पहिले कई बार कह चुके हैं।
वर्णसंस्थादिसामान्यं यत्र ज्ञानेवभासते । तन्नो विशेषणज्ञानमवग्रहपराभिधम् ॥ १९ ॥ विशेषनिश्चयोवाय इत्येतदुपपद्यते । ज्ञानं नेहाभिलाषात्मा संस्कारात्मा न धारणा ॥२०॥ इति केचित्लभाषते तच्च न व्यवतिष्ठते । विशेषवेदनस्थेह दृष्टस्येहात्वसूचनात् ॥२१॥ ततो दृढतरावायज्ञानाद् दृढतमस्य च ।। धारणत्वप्रतिज्ञानात् स्मृतिहेतोविशेषतः ॥ २२ ॥ अज्ञानात्मकतायां तु संस्कारस्येह तस्य वा । ज्ञानोपादानता न स्याद्रूपादेरिव सास्ति च ॥ २३ ॥
कोई अपना राग अलाप रहे हैं कि जिस ज्ञानमें वर्ण, रचना, आकृति आदिका सामान्यरूपसे प्रतिभास होता है वह ज्ञान तो हमारे यहां विशेषणज्ञान माना गया है। आप जैनोंने उसका दूसरा नाम अवग्रह धर दिया है । तथा जिस ज्ञानकरके वस्तुके विशेष अंशोंका निश्चय कराया जाता है,