Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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परम्परासे संयुक्तोंका एक अतिनिकट एक संयोग पदार्थ ग्राम है। ग्रंथकार कहते हैं कि यह तो वैशेषिक नहीं कहें। क्योंकि महल या ग्रहका विचार चलानेपर तुमने उन प्रासादों, घरों या भीतोंको भी संयोगपनेसे स्वीकार किया है । इंट, चूना, लकडी, लोहा या सोट, वांस, मट्टी, छप्पर आदिके संयोगको ही प्रासाद या घर माना है । घट, पटके समान एक द्रव्य घर नहीं है । वैशेषिकोंने घरको संयोगनामका गुण पदार्थ माना है । " गुणादिनिगुणक्रियः " गुणमें पुनः गुण रहता नहीं है । अतः ईंट आदि संयोगरूप घरमें दूसरे कोठियों आदिका संयोग नहीं ठहर सकेगा। भावार्थ-संयुक्त हो रहे द्रव्यके साथ तो दूसरे द्रव्यका संयोग हो सकता है । किन्तु संयोगरूप एक कोठीका दूसरी संयोगरूप कोठीके साथ पुनः संयोग नहीं हो सकता है। " द्रव्यद्रव्ययोरेव संयोगः " सजातीय पदार्थोंसे मिलकर बने हुये द्रव्यको तो वैशेषिकोंने द्रव्य मान लिया है। जैसे कि अनेक तन्तुओंसे एक पटद्रव्य बन जाता है। अनेक लोहेके अवयवोंसे एक टीन चद्दर या गाटर बन जाता है । अनेक लकडियोंके अवयव एक सोटद्रव्य बन जाता है। किन्तु लकडी, चूना, इंट, लोहा, पानी आदि विजातीय द्रव्योंके मिल जानेपर एक नवीन द्रव्य नहीं बनता है । अन्यथा मकानमें कील ठोक देनेपर या थालीमें परोसी हुई खिचडीका थालीके साथ मिलकर एक नया द्रव्य बन बैठेगा । देवदत्तके टोपी, कपडा, गहना, पहिननेपर भी एक विलक्षण द्रव्य उत्पन्न हो जावेगा । इस भयसे वैशेषिकोंने अनेक विजातीय पदार्थोंके संयोगरूप हो रहे नगर, ग्राम, खाट, घर, घडी, पसरट्टा आदिको द्रव्य हुआ नहीं मानकर " संयुक्तसंयोगाल्पीयस्व " नामक संयोग गुण माना है । अतः संयोगरूप प्रासादोंका पुनः संयोगरूप नगर नहीं बन सकता है । संयोगगुणमें पुनः दूसरा संयोग गुण नहीं रहता । गुणे गुणानङ्गीकारात् । निर्गुणा गुणाः ।
काष्ठेष्टकादीनां तल्लक्षणा प्रत्यासत्तिनगरादि भवत्विति चेन्न, तस्याप्यनेकगत्वात् । न हि यथैकस्य काष्ठादेरेकेन केनचिदिष्टकादिना संयोगः स एवान्येनापि सर्वत्र संयोगस्यैकत्वव्यापित्वादिप्रसंगात् समवाययत् ।
काठ, ईंट, टीन, आदिकी तत्स्वरूप प्रत्यासत्ति ( सम्बन्ध ).ही नगर आदि हो जाओ। यह तो नहीं कहना । क्योंकि अनेक काठ, ईंटोंका वह संयोग भी तो अनेकोंमें स्थित हो रहा है। अतः वे संयोग अनेक हैं एक नहीं। जिस प्रकार एक काठ, ईंट, कील, वरगा आदिका किसी दूसरे एक ईट, चूना आदिके साथ संयोग है । वही संयोग न्यारे तीसरे इंटे, वरगा आदि भी के साथ नहीं है। यों सब संयोगोंके माननेपर तो संयोग गुणको समवायके समान एकपन, व्यापीपन, नित्यपन आदिका प्रसंग हो जायगा। यानी वैशेषिकोंने समवाय को तो एक, नित्य, व्यापक, माना है। किन्तु संयोगको अनेक अनित्य, अव्यापक इष्ट किया है।