Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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विषयों में परस्पर विरोध न जायगा । इस प्रकार अपने घरमें मानकर बैठनेवाले प्रतिवाद के प्रति आचार्य महाराज समाधानरूप भाषण करते हैं । .
बौ बहुविधे चार्थे सेतरेऽवग्रहादिकम् । स्मरणं प्रत्यभिज्ञानं चिंता वाभिनिबोधनम् ॥ ३४ ॥ धारणाविषये तत्र न विरुद्धं प्रतीतितः । प्रवृत्तेरन्यथा जातु तन्मूलाया विरोधतः ॥ ३५ ॥
बहुत और बहुत प्रकारके तथा उनसे इतर अल्प, अल्पविध आदि अर्थोंमें अवग्रह आदि धारणातक ज्ञान प्रवर्तते हैं । उसी प्रकार बहु आदि बारह प्रकारके अर्थोंमें स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, व्याप्तिज्ञान, अनुमान, ज्ञान भी वर्तते हैं। धारणाज्ञान द्वारा विषय किये जा चुके उन बहु आदिक अर्थोंमें प्रवर्त रहे स्मरण आदि ज्ञानोंकी प्रतीति हो रही है। कोई विरोध नहीं है । अन्यथा यानी धारणा किये गये बहु आदिक अथोंमें यदि स्मृति आदिककी प्रवृत्ति नहीं मानी जायगी तो उन स्मरण आदिको मूलकारण मानकर उत्पन्न हुयी लोकप्रवृत्तिका विरोध हो जावेगा । अर्थात् स्मृति आदिकके अनुसार बहु आदिक अर्थोंमें कभी भी प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी, किन्तु होती है ।
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न हि धारणाविषये बहाद्यर्थे स्मृतिर्विरुध्यते तन्मूलायास्तत्र प्रवृत्तेर्जातुचिदभावप्रसंगात् । नापि तत्र स्मृतिविषये प्रत्यभिज्ञायास्तत एव । नापि प्रत्यभिज्ञाविषये चितायाश्चिंताविषये वामिनिबोधस्य तत एव प्रतीयते च तत्र तन्मूला प्रवृत्तिरभ्रांता च प्रतीतिरिति निश्चितं प्राक् ।
संस्काररूप धारणाज्ञानके विषय हो रहे बहु, बहुविध आदि अर्थोंमें स्मरण हो जाना विरुद्ध नहीं है । यदि धारणाद्वारा जान लिये गये विषयमें स्मृति होना विरुद्ध माना जायगा तो उन विषयोंमें धारणाको मूल कारण मानकर उत्पन्न हुयी प्रवृत्तिके कभी भी नहीं होनेका प्रसंग हो जावेगा । किन्तु वारणामूलक स्मृतिके द्वारा ऋण लेना देना, स्थानान्तर में जाकर अपने घर लौटना, अन्धेरे में अपने जीनेपर चढना उतरना, आदि अनेक प्रवृत्तियां हो रहीं देखी जाती हैं और उस स्मरणज्ञानद्वारा जान लिये गये विषय में प्रत्यभिज्ञानकी प्रवृत्ति होना भी तिस ही कारण से विरुद्ध नहीं पडता है । अर्थात - स्मृतिको कारण मानकर उत्पन्न हुये प्रत्यभिज्ञान द्वारा अनेक प्रवृत्तियां हो रहीं दीख रहीं यह मार्ग उस मार्ग से दूर है, यह दूकानदार उस दूकानदारसे अच्छा है, पर्वतमें यह वैसा ही धूआं है, जैसा कि रसोई खानेमें अग्निसे व्याप्त हो रहा देखा था। यह वैसा ही शब्द है, जिसके साथ हिले संकेत ग्रहण किया था, यह वही गृह है, जिसमें कि हमने कल भी निवास किया था, यह वही स्त्री या पति है इत्यादि । तथा प्रत्यभिज्ञानद्वारा जान लिये गये विषयमें चिन्ताज्ञानकी और
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