Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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न्यारी तीसरी जाति का है तथा कापिलोंने सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण इन तीनकी तदात्मक अवस्था रूप एक प्रकृतिको माना है । त्रिगुण आत्मक वह प्रधान उन न्यारे न्यारे तीनके त्रित्व या आकाशके एकत्वसे न्यारी जातिको लिये हुये है अथवा नैयायिकोंके यहां माना गया चित्रपट तत्त्व तो अनेक न्यारे न्यारे रूपोंसे या शुद्ध एक रूपसे युक्त पदार्थोकी अपेक्षा न्यारी तीसरी जातिवाला पदार्थ है । इस प्रकार कैई एकान्तवादियोंके माने हुये गृहीय दृष्टान्तोंसे वस्तुका भेद अभेद आत्मक जात्यन्तरपना साधलेना चाहिये । इस बातको हम पहिले कई स्थलोंपर प्रायः कह चुके हैं।
तत एव न सिद्धानामसिद्धानां वा बहादीनां धर्मिणि तत्पारतंत्र्यानुपपत्तिः कथंचित्तादात्म्यस्य ततः पारतंत्र्यस्य व्यवस्थितेः।
तिस ही कारणसे यानी कथंचित् भेद अमेद आत्मक वस्तुके निर्णीत हो जानेसे ही निष्पन्न हो चुके अथवा नहीं निष्पन्न हो चुके बहु, बहुविध, आदि धर्मोकी एक धर्मीमें उसके परतंत्र रहनेकी असिद्धि हो जायगी यह नहीं समझना चाहिये, अर्थात्-धर्म धर्मियोंमें परस्पर पराधीनता है । तिसके साथ कथंचित् तादात्म्य हो जानेको ही परतंत्रतापनेकी व्यवस्था हो रही है। भावार्थ-बौद्धोंने कहा था कि " पारतंत्र्यम् हि सम्बन्धः सिद्धे का परतंत्रता । तस्मात् सर्वस्य भावस्य सम्बन्धो नास्ति तत्त्वतः" इसका अर्थ यह है कि सम्बन्धवादियोंने परतंत्रताको ही सम्बन्ध माना है। कारणोंसे सिद्ध किये जा चुके पदार्थोंमें भला फिर पराधीनता क्या रहेगी ? यानी पूर्ण रूपसे बन चुका पदार्थ फिर किसीके अधीन नहीं होता है । कृतकृत्यको दूसरेकी अपेक्षा नहीं है। तथा जो पदार्थ अभी सिद्ध नहीं हुआ है, अश्वविषाणके समान उसको भी दूसरेकी पराधीनता नहीं झेलनी पडती है । ऐसी दशामें कोई भी सम्बन्ध वास्तविकरूपसे सिद्ध नहीं हो पाता है । इस प्रकार बौद्धोंके कहनेपर हम जैन सुझाते हैं कि कथंचित् सिद्ध, असिद्धस्वरूप-हो रहे धर्म धर्मियोकी कथंचित्तादात्म्यरूप परतंत्रता बन रही है। .. न च तद्रव्यार्थतः सतां पर्यायार्थतोऽसतां धर्माणां धर्मी विरुध्यतेऽन्यथैव विरोधात् ।
उस वस्तुमें द्रव्यार्थिकरूपसे विद्यमान हो रहे और पर्यायार्थिक नयसे विचारने पर नहीं विद्यमान हो रहे धर्मोका आधारभूत हो रहा धर्मी विरुद्ध नहीं पडता है, हां, दूसरे प्रकारोंसे ही माननेपर विरोध है । यानी जिसी अपेक्षासे विद्यमान और उसी अपेक्षासे अविद्यमान माना जायगा या जिसी अपेक्षासे अविद्यमान और उसी अपेक्षासे विद्यमान धर्मोको माना जायगा, तभी विरोध प्राप्त होता है । भिन्न भिन्न अपेक्षाओं द्वारा साधे गये अनेकान्तोंमें तो यथार्थ रूपसे वस्तु संस्कृत हो जाती है। पुत्रको माता पिता उत्पन्न करते हैं, गुरुजी उसको पढाते हैं । यहां हाथ, पग, आदि अवयवोंसे बन चुके और विद्वान् रूपसे नहीं बन चुके लडकेको गुरुकी पराधीनता प्राप्त कर गुरुशिष्यभावसम्बन्धरूप धर्मका धर्मीपना प्राप्त है। ऐसी पावन पराधीनता तो भाग्यसे प्राप्त होती है।
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