Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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'तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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धर्मीमें धर्मों या अवयवोंकी वृत्ति मानते मानते अनवस्था हो जायगी । पूर्णरूपसे या एक देश से वृत्ति होना नहीं मानकर अन्य प्रकारोंसे वृत्ति माननेपर तो नहीं देखे हुये पदार्थोंकी कल्पना करना ठहरा। धर्मी में पूर्णरूपसे भी धर्म नहीं रहते हैं । और एकरूपसे भी नहीं रहते हैं, किन्तु रहते ही हैं । यह आग्रह तो ऐसा ही है, जैसे कि कोई यों कहें कि यह पदार्थ जड नहीं है, चेतन भी नहीं है, किन्तु है ही, इत्यादिक अनेक दोषोंका गिरना मेदवादियोंके ऊपर होता है । इस कारण धर्म और धर्मीका सर्वथा भेद नहीं मानकर कथंचिद् भेद मानना चाहिये । धर्मीकी धर्मो में वृत्ति माननेपर भी ऐसे ही दोष आते हैं।
नाप्यनन्य एव यतो धर्म्येव वा धर्मा एव । तदन्यतरापाये चोभयासत्त्वं ततोपि सर्वो व्यवहार इत्युपालंभः संभवेत् ।
तथा धर्मोसे धर्मी सर्वथा अभिन्न भी होय यह भी हम जैनों के यहां नहीं है, जिससे कि अकेला धर्मी ही रहे अथवा अकेले धर्म हीं व्यवस्थित रहें। उन दोनों धर्म या धर्मियोंमेंसे एकके भी विश्लेश हो जानेपर दोनोंका भी अभाव हो जावेगा जो अविनाभूत तदात्मक अर्थ हो रहे हैं। उनमें से एकका अपाय करनेपर शेष बचे हुये का भी अपाय अवश्यंभावी है । अग्नि और तदीय उष्णतामेंसे एकका भी पृथक्भाव कर देनेपर बचे हुये दूसरेका भी निषेध हो जाता है । तिस कारण सर्वथा अभेद हो जाने से भी सभीमें धर्मपने या धर्मापनेका व्यवहार हो जायगा, यह उलाहना देना सम्भव हो जाय । अतः हम स्याद्वादियोंने धर्मधर्मीका सर्वथा अभेद नहीं मानकर कथंचित् अभेद माना है । नापि तेनैव रूपेणान्यत्वमनन्यत्वं च धर्मधर्मिणोर्यतो विरोधोभयदोषसंकर व्यतिकराप्रतिपत्तयः स्युः ।
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और हम जैनोंके यहां धर्मधर्मियोंका तिस ही रूपकरके भेद और तिस ही स्वरूपकर के अभेद भी नहीं माना गया है, जिससे कि विरोध दोष, उभयदोष, संकर, व्यतिकरदोष, अप्रतिपत्तिदोष हो जावें । भावार्थ -- अनेकान्तवादियोंके ऊपर विना विचारे एकान्तवादियोंने विरोध आदि दोष उठाये हैं । एकान्तवादियों का कहना है कि जिस ही स्वरूपसे भेद माना जायगा, उस ही स्वरूपसे अभेद माननेपर विरोध आता है। एक म्यानमें दो तलवारोंका रहना विरुद्ध है । १ जब एक ही वस्तु भेद, अभेद दोनों घर दिये गये हैं, तो उन दोनोंके अपेक्षणीय धर्मोका सम्मिश्रण हो जानेसे उभयदोष हो जाता है। खिचडीमें दालका स्वाद चावलों में और चावलोंका स्वाद दालमें आ जाता है । भिन्न जातिवाले घोडी और गधेके सम्बन्ध होनेपर उत्पन्न हुये खिच्चर में उभय दोष है । २ भेद अभेदके न्यारे न्यारे अवच्छेदकोंकी युगपत् प्राप्ति हो जानेसे संकर दोष आता हैं । ३ परस्पर विषयों में गमन हो जानारूप व्यतिकर दोष भी जैनोंके अनेकान्त में आता है । . ४ मेद, अभेद, अंशोंमें पुनः एक एकमें भेद अभेदकी कल्पना करते चले जाओगे, अतः जैनोंके