Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
है । और स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष, इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष, सर्वज्ञप्रत्यक्ष, इन ज्ञानोंका स्पष्टपना स्पष्ट क्षयोपशम या क्षयके वश हुआ स्वयं अनुभूत हो रहा है। छाया और आतपके समान लोक प्रसिद्ध हो रहे ज्ञानके अस्पष्टपनेका अपलाप नहीं करना चाहिये। आगम या अनुमानसे अग्निको जानकर पुन: प्रत्यक्ष कर लेनेपर विशदपना स्पष्ट प्रतीत हो रहा है । अतीन्द्रिय ज्ञानोंमें इससे भी अधिक विशदपना उपनीत कर लेना चाहिये।
ननु चास्पष्टत्वं यदि ज्ञानधर्मस्तदा कथमर्थस्यास्पष्टत्वमन्यस्यास्पष्टत्वादन्यस्यास्पष्टत्वेतिप्रसंगादिति चेत् तर्हि स्पष्टत्वमपि यदि ज्ञानस्य धर्मस्तदा कथमर्थस्य स्पष्टतातिप्रसंगस्य समानत्वात् । विषये विषयिधर्मस्योपचाराददोष इति चेत् तत एवान्यत्रापि न दोषः। ___ इसपर अपर ( कोई दूसरा ) विद्वान् प्रश्न करता है कि व्यंजनावग्रह, स्मरण, आदि ज्ञानों के अवसरपर माना गया अस्पष्टपना यदि ज्ञानका धर्म माना जायगा, तब तो अर्थका अस्पष्टपना कैसे कहा जा सकता है ! चेतनज्ञानका अस्पष्टपना जड अर्थमें तो नहीं धरा जा सकता है। यदि अन्य वस्तुके अस्पष्टपनसे दूसरे पदार्थका अस्पष्टपना माना जावेगा तो अतिक्रमणरूप अति प्रसंग हो जावेगा अर्थात्-दूरवृक्षके पत्तोंका ज्ञात किया अविशदपना निकटवर्ती बडे घडेमें भी व्यवहृत हो जाना चाहिये या सूचीके अग्रभागका अविशदपना हाथीके शरीरमें आरोपित हो जायगा, जो कि इष्ट नहीं है । इस प्रकार कटाक्ष करनेपर तो हम जैन भी अपर विद्वानके प्रति कह सकते हैं कि तब तो आपका माना हुआ स्पष्टपना भी यदि ज्ञानका धर्म है, तब भला अर्थका स्पष्टपना कैसे कहा जा सकेगा ? हमारे समान तुम्हारे ऊपर भी अतिप्रसंग दोष वैसाका वैसा ही लगता है। अर्थात्-ज्ञानके स्पष्टपनेसे यदि अर्थका स्पष्टपना होने लगे तो यहां कुटकीके कटपनेसे देशान्तरवर्ती खांडमें भी कटुता आ जायगी । या एक विशद हाथीका बडापन एक परमाणुमें भी मान लिया जाय । किन्तु ऐसा होता नहीं। यदि आप अपने अतिप्रसंगका निवारण यों करें कि चाहे जिस तटस्थ वस्तुके धर्मोका चाहे किसी भी उदासीन पदार्थमें आरोप नहीं किया जा सकता है, हां, ज्ञान और शेयका घनिष्टरूपसे विषयविषयीभाव सम्बन्ध हो जानेके कारण विषय-ज्ञेयमें विषयी-ज्ञानके स्पष्टपनका उपचार कर लिया जाता है। अतः कोई दोष नहीं है । इस प्रकार समाधान करने पर तो हम स्याद्वादी भी उत्तर कह देंगे कि अस्पष्टपनेके दूसरे स्थलपर भी तिस ही कारण यानी विषयीके धर्मका विषयमें आरोप कर देनेसे कोई दोष नहीं आता है। जैसे कि घट प्रत्यक्ष है । अग्नि परोक्ष है । ये ज्ञानोंके धर्म विषयोंमें व्यवहृत हो रहे हैं। दर्पणके धर्म प्रतिबिम्ब्यमें कल्पित कर लिये जाते हैं । प्रतिभास करा देनेकी अपेक्षा ज्ञानको दर्पणकी केवल उपमा देदी जाती है । वस्तुतः देखा जाय तो ज्ञान विषयके प्रति. बिम्बको धारण नहीं करता है। चमकीले मूर्त पदार्थमें ही मूर्तके प्रतिबिम्ब पड सकते हैं। चेतन अमूर्तज्ञानमें पुद्गल, आत्मा, धर्म, अधर्मके आकार नहीं पड सकते हैं, ज्ञान साकार होता है ।