Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ श्लोकवार्तिके
है | स्वसंवेदन प्रत्यक्षकरके भी अन्याप्ति दोष आता है। अलम् । जैसे अर्थके स्पष्ट अवग्रहको स्थापन किया है, उसी प्रकार ईहाज्ञान भी स्थापित कर लेना । अवाय, धारणा, भी यों हीं प्रतिष्ठित हो जाते हैं । कुछ मतिज्ञान और अवधि, मन:पर्यय ज्ञानोंमें अपने क्षयोपशमके अनुसार जैसे स्पष्टपना नियमित है, वैसे ही क्षायिक केवलज्ञानमें कर्मोके क्षयरूप योग्यता के अधीन होकर स्पष्टपना व्यवस्थित है । स्पष्टज्ञानको करानेवाली योग्यता ही ज्ञानके स्पष्टपनको वश कर रही है ।
सैवास्पष्टत्वहेतुः स्याद्यंजनावग्रहस्य नः । गंधादिद्रव्यपर्यायग्राहिणोप्यक्षजन्मनः ॥ ९ ॥
अस्पष्ट ज्ञानको वश करनेवाली वह योग्यता ही ज्ञानके अस्पष्टपनका कारण है । जैसे कि दर्पणी विशद स्वच्छता और अविशद स्वच्छताके निमित्त तैसे तैसे पारेका पोतना आदि हैं। गंध रस, स्पर्श, इनसे युक्त पुद्गल द्रव्य अथवा इन गुण या द्रव्योंकी सुगंध, काला, उष्णता, आदि पर्यायों अथवा शब्दस्वरूप पर्यायोंको ग्रहण करनेवाले तथा चार इन्द्रियोंसे उत्पन्न भी हो रहे व्यंजनवग्रहको हम स्याद्वादियोंके यहां अस्पष्ट क्षयोपशम अनुसार अस्पष्टपना नियत हो रहा माना गया है।
यथा स्पष्टज्ञानावरणवीयतरायक्षयोपशमविशेषादस्पष्टता व्यवतिष्ठत इति नान्यो हेतुव्यभिचारी तंत्र संभाव्यते ततोर्थस्यावग्रहादिः स्पष्टो व्यंजनस्यास्पष्टोऽवग्रह एवेति सूक्तम् ।।
जिस प्रकार ज्ञानावरण के स्पष्ट क्षयोपशमसे कतिपय ज्ञानोंका स्पष्टपना व्यवस्थित है । उसी प्रकार ज्ञानावरण और वीर्यान्तरायके अस्पष्ट क्षयोपशमविशेषसे किन्हीं ज्ञानोंका अस्पष्टपना व्यवस्थित हो रहा है । इस प्रकार ज्ञानके स्पष्टपन और अस्पष्टपनकी व्यवस्था हो चुकी है । इसके अतिरिक्त अन्य कोई हेतु उनकी व्यवस्था करनेमें व्यभिचारदोषरहित नहीं सम्भावित हो रहा है । तिस कारण सूत्रकार और हमने यों बहुत अच्छा कहा था कि अर्थ - वस्तुके बहु आदिक धर्मोके हुये अवग्रह ईहा आदिक कतिपय मतिज्ञान स्पष्ट हैं । और अव्यक्त अर्थका केवल एक अवग्रह ही अस्पष्ट होता है ।
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इस सूत्र का सारांश |
इस सूत्र के भाग्य में प्रथम ही विशेष नियम करनेके लिए सूत्रका आरम्भ करना बताकर जल भक्षणका दृष्टान्त देकर अव्यक्त शब्द आदि समुदायका व्यंजनावग्रह होना ही नियत किया है । सामान्यधर्म की प्रधानतासे अव्यक्त अर्थको अविशद जानना अपने वैसे क्षयोपशमके अधीन है । लौकिक जनों के सभी प्रत्यक्ष स्पष्ट ही होय या पूरे विशेष अंशोंको जाननेवाले ही होय ऐसा कोई नियम नहीं है, इसका विशेष विचार किया है। अस्पष्ट तर्कणा करना, श्रुतज्ञानका व्यापकलक्षण