Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्षचिन्तामणिः
नहीं है। किन्तु तेजोद्रव्यके उपजीवी चमकीले उद्भूतरूपको अवश्य धारण किये हुये तथा जिस तेजोद्रव्यमें भाखररूप उद्भूत नहीं भी है, उसमें तेजोद्रव्यके उपयोगी उद्भूत उष्णस्पर्श अवश्य प्रतीत हो रहा है । जैसे कि उष्णजलमें संयुक्त हो रहा तेजोद्रव्य उद्भूत रूपवान् यद्यपि नहीं है, किन्तु उष्णस्पर्शवान् अवश्य है । नैयायिकजनोंने जलको सर्वदा शीतल माना है । उनके मत अनु- . सार उष्णजलमें तेजोद्रव्यके उष्णस्कन्ध बहुतसे घुस आते हैं । अतः जल उष्ण प्रतीत होने लग जाता है। जैसे कि बूरेमें काली मिरचका चूरा डाल देनेसे बूरेका स्वाद मिष्टमिश्रित चिरपिरा ( कटु ) अनुभूत हो जाता है । अथवा पानीमें मषीका बुरादा मिला देनेसे कालापानी या नीलापानी हो जाता है । वस्तुतः पानी ठंडा स्वच्छ, शुक्ल, है । किन्तु इस विषयमें जैनसिद्धान्त ऐसा नहीं है। स्याद्वादी तो यों मानते है कि पुद्गलद्रव्यकी विशेषपर्याय जल है । सम्भव है उसमें जलकायके जीवोंके शरीर भी होवे । अनेक स्कन्धोंसे बना हुआ होनेके अशुद्धद्रव्यजलका स्पर्शगुण जो अबतक शीतस्पर्श पर्यायस्वरूप परिणत हो रहा था, वही स्पर्शगुण विचारा अग्नि, तीव्र आतप, बिजली, आदिका निमित्त मिल जानेपर उष्णस्पर्श परिणति ले लेता है । पृथ्वी, जल, तेज, वायु ये न्यारी जातिके चार तत्व नहीं है । क्योंकि वायु जल बन जाती है । वृक्षोंमें जल प्राप्त होकर वनस्पति बन जाता है । धोंकी जानेपर वायु ही तीव्र अग्नि हो जाती है। अग्निमय कोयला बुझ जानेपर राख हो जाता है । वस्तुतः पुद्गलद्रव्य ( तत्त्व ) एक है। कोई भी पौद्गलिक पदार्थ निमित्त मिलनेपर किसी भी स्पर्शको धारण कर सकता है । राजगृहीके कुंडोंका जल तो खानोंमेंसे ही प्रथम प्रथम अति उष्णस्पर्शवाला झरता है । शीत ऋतुमें कूपजल मी कदुष्ण निकलता है । अतः जलका शीत ही स्वभाव नियत रखना अयुक्त है। जलमें बूरा या स्याही चूरा अथवा सतुआ मिलादेनेपर केवल संयोग ही नहीं होता, किन्तु बंध होकर तीसरी अवस्था हो जाती है। " तद्वयोः स्वगुणयुतिः ", बंधदशामें दोनों पदार्य अपने अपने स्वभावोंसे च्युत होकर तीसरी ही जातिकी पर्यायको धारण कर लेते हैं। हां, विजातीयद्रव्योंका संयोग होकर बंध हो जानेपर "सगसगभाव ण मुंचंति" अनुसार द्रव्यरूपसे अपने स्वभावोंको कदापि नहीं छोडते हैं। तभी तो विभक्त हो जानेपर न्यारे न्यारे द्रष्य बने रहते हैं । व्यणुकका भेद हो जानेपर दो परमाणु द्रव्य उपज जाते हैं। प्रकरणमें यह कहना है कि उष्णजलका उष्ण स्पर्श वस्तुतः जलका ही तदात्मक परिणाम है । जलमें सूची अप्रभागोंके समान घुसे हुये माने गये तेजोद्रव्यका वह औपाधिक परिणाम नहीं है । भला विचारो तो सही कि उष्ण स्पर्श यदि जलकी निज गांठका नहीं है तो उष्णजलका न्यारा स्वाद भी तेजोद्रव्यकाही माना जायगा। किंतु नैयायिकोंने तेजोद्रव्यको स्वादरहित स्वीकार किया है "गुरुणी द्वेरसवती" (पृथ्वीजले) शीतजलके खाद और उष्ण जलके खादमें अन्तर तो अवश्य है। ठंडा दूध और भोजनके खादसे उष्ण दुग्ध या भोजनका रस विलक्षण है। अतः तेजोदव्यके निमित्तसे जल, दूध और भोज्य पदायोंमें ही रसान्तर की उत्पत्ति माननी चाहिये । नीरस आकाश तो किसी व्यजनमें रसान्तर नहीं
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