Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यचिन्तामणिः
मीति या झोपडी आदिके व्यवधान होनेपर भी शब्दका श्रवण होता है ( हेतुः ) अतः श्रोत्र ( पक्ष) यदि अप्राप्यकारी ( साध्य ) इष्ट किया जा रहा है, तब तो नासिका इन्द्रिय मी तिस प्रकार अप्राप्यकारी इष्ट कर लिया जावे । भीति और प्रासाद पंक्तियोंका व्यवधान होते हुये भी सड़ी हुयी नालियों, हींग, लहसुन, प्याजके छोंककी गन्ध सूंघ ली जाती है। एतावता क्या प्राण भी अप्राप्यकारी हो जायगी ! यदि तुम यों कहो कि भीति आदिसे व्यवहित हो रहे गन्धयुक्त सूक्ष्मद्रव्यको घ्राणके साथ प्राप्त हो रहेकी ही सम्वित्ति होती है, अर्थात् जो सूंघे जा चुके हैं, वे गन्धद्रव्यके चारो ओर फैले हुये सूक्ष्म अंश ही हैं। कुछ मीति, छप्पर उनका व्यवधान नहीं कर सकते हैं । इस प्रकार तुम्हारे कहनेपर तो हम स्याद्वादियोंके यहां भी कर्ण इन्द्रियके साथ सम्बन्धित हो रहे शब्दका ही श्रावणप्रत्यक्ष दुआ कहा जाता है। प्रथम ही दूरप्रदेशमें उत्पन हुपे शब्दकी पौद्गलिक लहरें फैलती, फैलती, कानके निकट आ जाती हैं। कभी कभी पौगलिक शद्वोंके आनेमें एक, दो मिनट भी लग जाते हैं । हजार हाथ दूरपर धो रहे धोबीके मोंगरेका शद्ध दस सैकिण्ड पीछे सुननेमें आता है। दो कोस दूरपर चल रही तोपकी, जलरही बारुदका प्रकाश दीख जानेके आधी मिनट पीछे तोपका शब्द सुनाई पडता है । छोटा मोटा व्यवधान शद्वको बाधा चौथाई सुनाई आ जाने देता है । दूरपना और छोटे छोटे व्यवधान होते हुये भी शद्वकी लहरें बन्दूककी गोलीकी गतिके समान क्रमसे उत्पन्न होती जाती हैं । जैसे बन्दूककी गोली कुछ दूर जाकर वेगके मन्द हो जानेसे गिर पडती है । अथवा मध्यमें किसी कठोर पदार्यके साथ टकरा जानेसे आगे - नहीं जा पाती है, वैसी ही शदरचनाको व्यवस्था है । अतः गन्ध अणुओंके समान सूक्ष्म शबपुद्गल भी प्रमाणोंसे सिद्ध हो रहे हैं। गन्ध और शद्बपर शंकासमाधान एकसा है। जिस प्रकार कितनी ही गंधपरमाणुये भीत आदिको छेदने भेदनेमें समर्थ में, उस ही प्रकार हम स्याद्वादियोंके यहां शब्दस्वरूप सूक्ष्मपुद्गल भी प्रमाणोंसे सिद्ध हैं । पौगलिक शब्दोंकी गति भी प्रसिद्ध है। .. . ...
. पुद्गलपरिणामः शब्दो बायेंद्रियविषयत्वात् गंधादिवदित्यादि प्रमाणसिद्धाः शन्दपरिणतपुद्गलाः इत्यग्रे समर्थयिष्यामहे । ते च गंधपरिणतपुद्रकवत् कुव्यादिकं भित्वा स्वेद्रियं प्राप्नुवंतः परिच्छेद्या इति न तेषाममातानामिंद्रियेण ग्रहणं ।
___शब्द ( पक्ष ) पुद्गलका परिणाम है ( साध्य ), बाह्य इन्द्रियका विषय होनेसे (हेतु), गन्ध, रस आदिके समान [ अन्वय दृष्टांत ] इत्यादिक प्रमाणोंसे यह बात सिद्ध हो जाती है कि पुद्गलद्रव्य ही शवस्वरूप पर्यायको धारती है। तभी तो फोनोग्राफ यंत्रकी चूडी या तवेमें पौद्गलिकशब्द-सम्बन्धित होकर निमित्त मिलानेसे प्रकट हो जाते हैं । विद्युत् शक्तिसे प्रेरै हुये और तारका आश्रय पाकर शद्वपुद्गल दूरतक चले आते हैं। तारके विना भी शह दौडते हैं । तीव शब्दोंसे कर्णइन्द्रियका आघात या धक्का लगना देखा जाता है। कानमें कुछ ऐसा महान् शद करनेसे