Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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जैसे कि पहिले बाह्य इन्द्रियत्व हेतुद्वारा उठाया गया अनुमान आठवीं बार्तिकमें बाधाप्रस्त कर दिया गया है। .. . तदेवं चक्षुषः प्राप्यकारित्वे नास्ति साधनं ।। . मनसश्च ततस्ताभ्यां व्यंजनावग्रहः कुतः ॥ ९०॥
तिस कारण इस प्रकार चक्षु और मनको प्राप्यकारीपना सिद्ध करनेमें नैयायिक या वैशेषिकोंके यहां कोई समीचीन बापक हेतु नहीं है । मनके प्राप्यकारीपनको तो वे प्रथमसे ही इष्ट नहीं करते हैं । तिस कारण उन चक्षु और मनसे व्यंजनावग्रह कैसे हो सकता है ! अर्थात् कथमपिनहीं । अतः " न चक्षुरनिन्द्रियाम्याम् " यह सूत्र युक्त है।
___ यत्र करणत्वमपि चक्षुपि प्राप्पकारित्वसापनाय ना तान्यत्साधनं दूरोत्सारितमेवेति मनोबदमाप्यकारि चक्षु सिद। तब न चक्षुर्मनीभ्यां ध्यजनस्याग्रह इति व्यवतिष्ठते।
जहां चक्षुके प्राप्यकारित्वकी साधनेमें वैशेषिकोंद्वारा अव्यर्थ, रामबाणके समान मान लिया गया करणत्व हेतु भी जब चामें प्राप्यकारित्वकी साधनेके लिये समर्थ नहीं है तो फिर यहां कोई अन्य दूसरे भौतिकत्व, बाह्य इन्द्रियत्व, आसनप्रकाशकत्व, विप्रकृष्टार्थप्राहकत्व हेतु तो दूर हो फेंक दिये गये, ऐसा समझ लेना चाहिये । चक्षुकिरणोंका दूर फेंकना तो दूर रहा, किन्तु लगे हा प्राप्यकारित्वको साधनेवाले हेतु ही हेत्वाभास बनाकर बहिष्कृत कर दिये गये है। बतः मनके समान चक्षु इन्द्रिय भी अप्राप्यकारी सिद्ध हो चुकी और तिस कारण चक्षु और मनकरके अस्पष्ट व्यंजनावग्रह नहीं हो पाता है। इस प्रकार श्रीउमास्वामी महाराजका सूत्र निर्दोष व्यवस्थित हो जाता है।
दूरे शद्धं श्रृणोमीति व्यवहारस्य दर्शनात् । श्रोत्रमप्राप्यकारीति केचिदाहुस्तदप्यसत् ॥ ९१ ॥ दूरे जिवाम्यहं गंधमिति व्यवहतीक्षणात् । प्राणस्याप्राप्यंकारित्वप्रसक्तिरिष्टहानितः ॥ ९ ॥
दृश्य और स्वसम्वेध, आत्मस्थ, पदार्थीको स्पष्ट जाननेवाळे चक्षु और मनको अप्राप्यकारित्वका पुरस्कार प्राप्त हो चुकनेपर दाल भातमें मूसर डालनेकी नातिका अवलम्ब लेकर कोई महाशय श्रोत्रको भी अप्राप्यकारित्वका पारितोषिक दिलाना चाहते है। वे अनुमान बनाते हैं कि दूर क्षेत्रमें पडे हुये शब्दको मैं सुन रहा हूं। इस प्रकार व्यवहारके देखनेसे ( हेतु ) श्रौत्र इन्द्रिय (पक्ष)