Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्वार्थ श्लोकवार्तिके
प्रकार मीमांसकों के कहनेपर तो हम जैन भी यह कहे विना नहीं मानेंगे कि गन्ध, स्पर्श आदिमें मी तिस ही कारण देतुकी असिद्धि हो जानेसे उस मुख्यमहत्त्वके असम्भवकी सिद्धि नहीं हो सकेगी । गन्ध आदि गुण भी तो स्वतंत्र दीख रहे हैं । पुनः मीमांसक बोलते हैं कि तुम जैनोंने उन गन्ध आदिकोंकी स्वतंत्र उपलब्धि होनेका निश्चय मला कैसे कर लिया ? बताओ । वे गन्ध आदि तो सदा पृथ्वी, वायु, आदि द्रव्योंके अधीन हो रहेपनसे प्रतीत किये जा रहे हैं । स्थूल, महती, पृथ्वीका गन्ध, स्थूल, महान्, जाना जा रहा है। फैली हुयी अग्निका उष्ण स्पर्श लम्बा, चौड़ा, जाना जा रहा है । इस कारण हम मीमांसकोका अस्वतंत्रपना हेतु गन्ध, स्पर्श आदि में तो सिद्ध हो जाता है । इस प्रकार मीमांसकोंके कहनेपर इम भी अपनी टेवके अनुसार कह देंगे कि वक्ता, नगाडा, मृदंग, मजीरा, आदि द्रव्योंके अधीन हो रहे शद्वकी भी उपलब्धि हो रही है। अतः अस्वतंत्रपन हेतुकी शद्वमें सिद्धि हो जाओ और ऐसा हो जानेपर शद्व में मुख्यरूप से महत्त्वगुण नहीं ठहर सकेगा । गन्ध आदि के समान उपचारसे ही महत्व आदि रह सकेंगे, सो सोच लेना । " सिद्धेरस्तु पाठ होनेपर यों अर्थ कर लिया जाय कि अस्वतन्त्रपनकी सिद्धि हो जानेसे शद्वमें मुख्यरूप से महत्त्व आदि नहीं ठहर सकेंगे ।
99
५८८
तस्य तदभिव्यंजकध्वनिनिबंधनत्वा संत्रत्वोपलब्धेरिति चेत् तर्हि क्षित्यादिद्रव्यस्यापि गंधादिव्यंजकवायु विशेषनिबंधनत्वात्तु गंधादेस्तंत्रत्वोपपत्तिः । शब्दस्य वक्तुरन्यत्रोपलब्धेर्न तंत्रत्वं सर्वदेति चेत् गंधादेरपि कस्तूरिकादिद्रव्यादन्यत्रोपलंभाचत्परतंत्रत्वं सर्वदा माभूत् ।
असिद्ध हेत्वाभास होगया ।
उस प्रथम से विद्यमान हो रहे शद्वकी मात्र अभिव्यक्ति करनेमें कुछ चारों ओरसे प्रकट करनेवाली ध्वनिरूप वायुको कारणपना होनेसे उस शब्दको वायुकी पराधीनता दीख रही है । अतः वस्तुतः शङ्ख स्वतंत्र है । यदि इस प्रकार मीमांसक कहेंगे तब तो हम भी कह देंगे किं पृथ्वी, जल, अग्नि आदि द्रव्यों को भी गन्ध, स्पर्श, आदिके व्यंजक वायुविशेषोंका कारणपन होनेसे ही गन्ध आदिको उन पृथ्वी आदिकी पराधीनता बन रही है। वैसे तो गन्ध स्पर्श आदिक सदा स्वतंत्र हैं । तत्र तो मीमांसकोंका अस्वतन्त्रत्व हेतु पुनरपि मीमांसक कहें जाते हैं कि वक्ताके देशसे अन्य देशोंमें भी वक्ताके शब्दोंकी उपलब्धि हो रही हैं । तोपके स्थल से कोसों दूर भी तोपका शब्द सुनाई देता है । विना तारका तार, या फोनो ग्राफ में भी रहस्य है । अतः वक्ता, भेरी, तोप आदिके सदा अधीन शब्द नहीं है। इस प्रकार मीमांसकों के कहने पर तो हम कहते हैं कि गन्ध, स्पर्श, आदिका भी कस्तूरी, अग्नि, इत्र, आदि द्रव्यों के देश से अन्य देशोंमें उपलब्ध होता है । अतः गन्ध आदि भी उन कस्तूरी आदिकके सदा पराधीन नहीं माने जावें । ऐसी दशा होनेपर गन्ध आदिमें मुख्य महत्त्व आदि गुणोंका अभाव साधके लिये दिया गया अस्वतंत्रपना हेतु असिद्ध हो जाता है ।