Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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'तत्वार्थचिन्तामणिः
कारण यानी भांतिके भीतर शद्वका सुना जाना अन्यथा यानी शङ्खका अप्रतिघात हुये विना असम्भव है । अतः शद्वस्वरूप पुद्गलोंका डेरा, कोट आदिके साथ अप्रतिघात हो जाओ, ऐसा मानने पर ही उस चोद्यका दृढरूपसे परिहार हो सकता है । अन्यथा नहीं । गन्धवरूप पुद्गलोंका भी छोटी पतली मति आदि करके प्रतिघात नहीं होता हुआ देखा गया है। चांदी सोनेके भूषण या तांबे पीतल के भांडे अथवा मूल्यवान् राजकीय पत्रों (स्टाम्प, रजिष्ट्री, डिग्री, ) को भींति या भूमिमें गढ़कर रखने में विशेष अन्तर पड जाता है । इसमें वायुका आना जाना या कमती आना, नहीं आना, ही कारण हैं । अतः गन्धपुद्गलोंके समान उन शद्वपुद्गलोंका भी चला आना विरुद्ध नहीं पडता है । वैसा ही प्रत्यक्षप्रमाणसे होता दीख रहा है ।
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यदि पुनरसूर्तस्य सर्वगतस्य च शद्धस्य परिकल्पनात्तयंजकानामेवाप्रतिघाताच्छ्रवणमित्यभिनिवेशः तथा गंधस्यामूर्तस्य कस्तूरिकादिद्रव्यविशेषसंयोगजनितावयवा व्यंजकामूतद्रव्यांतरेणाप्रतिहतास्तथा घाणहेतवः इति कल्पनानुषज्यमाना कथं निवारणीया ?
यदि फिर सीमांसक इस प्रकारका आग्रह करें कि हमारे यहां शब्द सर्वव्यापक और अमूर्त माना गया है । अतः शङ्ख तो वहां भीतर पहिलेसे ही है । किन्तु व्यंजक वायुओंके नहीं होने से. अबतक उसका सुनना नहीं होता था । उन शब्दोंके व्यंजक वायुओं ही अप्रतिघात ( अरोक ) हो जानेसे अब शब्दों का श्रवण हो जाता है। आचार्य कहते हैं कि तिस प्रकार सिद्धान्त कल्पित करनेपर तो हमारी पीछे पीछे प्रसंग प्राप्त हो रही यह कल्पना भी कैसे निवारी जा सकेगी कि अमूर्त गन्धके भी कस्तूरी, हींगड़ा आदि द्रव्यविशेषोंके संयोगसे उत्पन्न हुये अवयव ही व्यंजक हैं और अन्य मूर्त्तद्रव्योंसे नहीं प्रतिघातको प्राप्त हो रहे संते तिस प्रकार गन्धके सूंघे जानेमें नासि काके सहकारी कारण हैं । अर्थात्-शब्द के समान गन्धको भी अमूर्त, व्यापक, मान लिया जायगा । arth समान गन्धव्यंजक पदार्थोंका ही जाना आना कल्पित किया जा सकता है । कोई रोकने वाला नहीं है। मीमांसकोंके ऊपर जैनोंकी ओरसे यह कटाक्ष हुआ ।
गंधस्यैवं पृथिवीगुणत्वविरोध इति चेत् शब्दस्यापि पुगळत्वविरोधस्तथा परैः शब्दस्य द्रव्यांतरत्वेनाभ्युपगमाददोष इति चेत्तथा गंधोपि द्रव्यांतरमभ्युपगम्यतां प्रमाणबळायातस्य परिहर्तुमशक्तेः । स्पर्शादीनामप्येवं द्रव्यांतरत्वप्रसंग इति चेत्, तान्यपि द्रव्यांतराणि संतु । मीमांसक कहते हैं कि इस प्रकार गन्धको अमूर्त्त, व्यापक, माननेपर तो गन्धको पृथ्वीका गुणपना कहने का विरोध होगा । अर्थात्- हमने और नैयायिकोंने गन्धको पृथ्वीका गुण माना है । अतः हम गन्धको अमूर्त्त या व्यापक नहीं कह सकते हैं। इस प्रकार मीमांसकके कहने पर तो हम जैन कहेंगे कि तिस प्रकार शब्दको भी अमूर्त्त व्यापक माननेपर तो पुद्गलपनेका विरोध होगा । अर्थात - शब्दको पौगलिकपना जब हम जैनों के यहां सिद्ध हो चुका है तो मीमांसक शब्दको अमूर्त और व्यापक कैसे मान सकेंगे ! इसपर मीमांसक यदि यों कहें कि तिस प्रकार दूसरे विद्वानोंने
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