Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
कोई शंका करता है कि अव्यक्त अर्थके अवग्रह, ईहा, आदिक सभी ज्ञानोंके निषेध करनेके लिए क्या उमास्वामी महाराजने यह सूत्र कहा है ? अथवा क्या अव्यक्त अर्थके व्यंजनावग्रहके ही निषेधार्थ यह सूत्र कहा है ? अर्थात् अव्यक्त अर्थके व्यंजनावग्रह समान क्या ईहा आदिक ज्ञान भी चक्षु, मन, इन्द्रियोंसे नहीं हो सकेंगे ? ठीक ठीक बताओ । इस प्रकार उचित शंका होने पर श्रीविद्यानन्द आचार्य उसके उत्तरमें यह व्यक्त व्याख्यान कहते हैं कि
नेत्याचाह निषेधार्थमनिष्टस्य प्रसंगिनः। चक्षुर्मनोनिमित्तस्य व्यंजनावग्रहस्य तत् ॥१॥ व्यंजनावग्रहो नैव चक्षुषानिद्रियेण च ।
अप्राप्यकारिणा तेन स्पष्टावग्रहहेतुना ॥२॥
पूर्वमें कहे गये " व्यंजनस्यावग्रहः” इस सूत्र अनुसार चक्षु और मनके निमित्तसे भी व्यंजनावग्रह हो जानेका प्रसंग आता है, जो कि इष्ट नहीं है। अतः प्रसंगप्राप्त उस अनिष्टका निषेध करनेके लिये " न चक्षुरनिन्द्रियाभ्यां " इस प्रकार सूत्रको श्रीउमास्वामी महाराज कहते हैं । ज्ञेयविषयोंको प्राप्त नहीं कर ज्ञान करानेवाले चक्षु और मनकरके व्यंजनावग्रह नहीं होता है। यह सूत्रका अर्थ है । स्पष्ट अवग्रहके कारण हो रहे उन चक्षु और मन करके अव्यक्त अर्थका अवग्रह नहीं हो पाता है । अतः परिशेष न्यायसे निकल पडता है कि अव्यक्त अर्थके ईहा आदिकज्ञान चक्षु और मन तथा अन्य स्पर्शन आदि इन्द्रियोंसे नहीं हो पाते हैं । जब कि पूर्व सूत्रमें अव्यक्त अर्थका व्यंजन अवग्रह होना ही बताया गया है तो उस हीसे अव्यक्त विषयमें छहौ इन्द्रियोंकरके ईहा, अवाय, आदि मतिज्ञानोंका निषेध हो जाता है । व्यक्त ही अर्थमें धारणापर्यंत ज्ञान होकर स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, अनुमान, आदिज्ञान उत्पन्न होते हैं । भले ही वे स्मरण आदिक अस्पष्ट होवे । अतः यह सूत्र चक्षु और मन द्वारा अव्यक्त अर्थोके अवग्रह, ईहा, आदि सभी ज्ञानोंके निषेधार्य है । जब अवग्रह ही नहीं हो पाता हो चक्षु, मनसे अव्यक्तके ईहा आदि कैसे हो सकेंगे !
प्राप्यकारींद्रियश्चार्थे प्राप्तिभेदाद्धि कुत्रचित् । तद्योग्यतां विशेषां वाऽस्पष्टावग्रहकारणं ॥३॥
विषयको प्राप्त होकर ज्ञान करानेवाली इन्द्रियोंकरके अर्थमें प्राप्ति हो जानेके भेदसे कहीं कहीं अस्पष्ट अवग्रहके कारण उस योग्यताविशेषको प्राप्तकर व्यंजनावग्रह हो जाता है। अर्थात् स्पृष्ट अर्थका स्पर्शना या स्पर्शकर बंधजानाखरूप प्राप्ति होकर श्रोत्र, त्वक्, रसना, घ्राण इन्द्रियों करके अस्पष्ट अवग्रहकी योग्यता प्राप्त होनेपर व्यंजनावग्रह मतिज्ञान हो जाता है।