Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
औषधि आदि पदार्थोंका प्रकाश करा रहीं मानी गयी हैं । इस प्रस्तावका आचार्य महाराज स्पष्ट निरूपण करते हैं ।
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न तेऽस्मदादीनां स्फुरंतश्चक्षुरंशवः । सांधकारनिशीथिन्यामन्यानभिभवादपि ॥ ३४ ॥
अग्दर्शी हम सदृश आदि जीवोंके चमकती हुयीं, स्फुरायमाण हो रहीं, नेत्रकिरणें तो नहीं दीखती हैं। यहां यदि कोई यों कहदे, जैसे कि आतपमें सूर्यकिरणोंद्वारा अभिभव ( छिप जाना ) हो जाने से प्रदीप किरणें नहीं दीखती हैं । उसीके समान चमकते हुये दूसरे पदार्थों के प्रकाशित हो जाने के पीछे तिरोभूत हो जानेके कारण चक्षुकिरणें नहीं दीखपाती हैं। इसपर तो हमारा यह कहना है कि अन्धकारसहित काली रातमें तो अन्य प्रकाशकों द्वारा भी छिपाया जाना नहीं होनेसे पुनः अमावस्याकी मेघ छारही काली रातमें मनुष्य, स्त्री, कबूतर आदिके नेत्रोंकी किरणें नहीं दीखती हैं। देखो, प्रदीप किरणें घाममें यद्यपि नहीं दीखती हैं। परन्तु मनुष्य, चिरैया, आदिकी नेत्रकिरणें तो अंधेरी रातको भी नहीं दीखती हैं। अतः किसी अभिभावक द्वारा अभिभव हो जाना मानना तो ठीक नहीं। हम तो कहते हैं कि अस्मदादिकके नेत्रों में किरणें हैं ही नहीं, अतः रातको और दिनको किसी भी समय नहीं दीखती हैं । जैसे कि नहीं होने के कारण मिट्टी घडेकी किरणें नहीं दीखती हैं। भले ही बिल्ली, कुत्ता, सिंह, कृष्णसर्प, बैल आदिके नेत्रोंकी चमकती हुयी कान्ति रात्रिमें दीखती है । फिर भी सम्पूर्ण चक्षुओंमें इतने से ही प्राप्यकारीपना सिद्ध नहीं हो जाता है । कुत्ता आदिके आंखोंकी भी किरणें दूरस्थित दृश्य पदार्थोंतक जाती हुयीं नहीं दीखती हैं। तथा मनुष्योंकी नेत्रकिरणें तो दीखती ही नहीं हैं । अतः व्यतिरेकव्यभिचार हो जानेसे चक्षुका किरणोंद्वारा विषयोंके साथ प्राप्त होकर ज्ञान कराना सिद्ध नहीं हो पाता है । असंख्यस्थलोंमेंसे एक स्थानपर भी यदि व्यभिचार दोष आगया तो इतनेसे ही हेतु तुमद्भाव बिगड जाता है । व्यभिचारी पुरुष, कुलटा स्त्री, चोर, असत्यभाषीजन, दिन रात थोडे ही कुकर्म रत रहते हैं । किन्तु कदाचित् ही निकृष्ट कर्ममें तीव्र आसक्त हो जानेसे वे दूषित होकर उसके चौबीस घन्टोंतक लग गये संस्कारके वश होते हुये सतत पापभागी बने रहते हैं ।
यद्यनुद्भूतरूपास्ते शक्यंते नेक्षितुं जनैः ।
तदा प्रमांतरं वाच्यं तत्सद्भावावबोधकम् ॥ ३५ ॥
· वैशेषिक यदि यों कहें कि अस्मदादिक जीवोंकी वे नेत्रकिरणें अनुद्भूतरूप वाली हैं । अतः अप्रकटरूप विशिष्ट होने के कारण मनुष्योंकरके वे नहीं देखी जा सकती है । इसपर आचार्य कहते