Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यचिन्तामणिः
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हैं कि तब तो उन नेत्र किरणोंके सद्भावको समझानेवाला न्यारा प्रमाण आप वैशेषिकोंको कहना चाहिये । क्योंकि हम लोगोंके नेत्र तो अब चक्षुकिरणोंको देखनेके लिये समर्थ नहीं है । अर्थात् वैशेषिक का मत है कि " उद्भूतरूपं नयनस्य गोचरो द्रव्याणि तद्वन्ति पृथक्त्वसंख्ये । विभाग संयोगपरापरत्वस्नेहद्रवत्वं परिणामयुक्तम् ॥ १ ॥ क्रियां जातिं योग्यवृत्तिं समवायं च तादृशम् ।। उद्भूतरूपवाले पदार्थ ही नेत्रों द्वारा देखे जाते हैं । " गृह्णाति चक्षुः सम्बन्धादालोकोद्भूतरूपयोः " । अपनी ही चक्षुसे अपनी ही नेत्रकिरणोंको देखनेपर अनवस्था दोष आता है। क्योंकि घटके समान किरणों के जाननेके लिये पुनः उन किरणोंके साथ अन्य किरणोंका संयोग आवश्यक होता जायगा, दूसरे व्यक्ति द्वारा नेत्र किरणोंको दिखानेपर अन्योन्याश्रय हो जाता है । अतः मनुष्य, चिरैया, आदिकी नेत्रकिरणोंको सिद्ध करानेके लिये प्रत्यक्ष प्रमाण तो थक गया । ra आप वैशेषिक अन्य प्रमाणोंकी शरण लीजिये ।
रश्मिवल्लोचनं सर्व तैजसत्वात् प्रदीपवत् ।
इति सिद्धं न नेत्रस्य ज्योतिष्कत्वं प्रसाधयेत् ॥ ३६ ॥ तैजसं नयनं सत्सु सन्निकृष्टरसादिषु । रूपस्य व्यंजकत्वाच्चेत्प्रदीपादिवदीर्यते ॥ ३७ ॥
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वैशेषिक अनुमानप्रमाणद्वारा नेत्रोंकी किरणोंको सिद्ध करते हैं कि सम्पूर्ण चक्षुयें ( पक्ष ) किरणों से सहित हैं ( साध्य ) तेजो - द्रव्यकर के निर्मित होनेसे ( हेतु ) प्रदीप कलिकाके समान ( अन्वयदृष्टान्त ) इस प्रकार पक्षमें ठहर कर सिद्ध हुआ । तैजसत्व हेतु नेत्रोंके दीस किरणसहितपको अच्छा साध देवेगा । इस अनुमानमें दिया गया तैजसत्व हेतु असिद्ध नहीं है । सो सुनिये । नेत्र (पक्ष) मास्वरस्वरूपवाले तेजोद्रव्य से बने हुये तेजस हैं ( साध्य) अम्य पदार्थोंके रूप, रस, गंध, आदिके सन्निकृष्ट होते संते भी रूपका ही व्यंजक हो जानेसे ( हेतु) प्रदीप, सूर्य, आदिके समान, ( अन्वयदृष्टान्त ) यदि इस प्रकार वैशेषिक निरूपण कर रहे हैं, तब तो यह दोष आता है कि
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हेतोर्दिने निशानाथमयूखैर्व्यभिचारिता । तैजसं निहितं चंद्रकांतरत्नक्षितौ भवाः ॥ ३८ ॥ तेजो नुसूत्रता ज्ञेया गा मूलोष्णवती प्रभा । नान्या मरकतादीनां पार्थिवत्वप्रसिद्धितः ॥ ३९ ॥