Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तवाचिन्तामणिः
वारण करनेके लिये द्रव्यत्व और ज्ञानके कारणको ही ज्ञानका विषय माननेवाले वादीके यहां चाक्षुषप्रत्यक्ष विषय हो रहे रूप, रूपवान् अर्थ, रूपत्व, रूपाभाव इन करके हुये व्यभिचारके निवारणार्थ करणत्व विशेषण लगानेपर भी चन्द्र उद्योत आदि करके व्यभिचार दोष लगा रहना तदवस्थ रहता है । अतः हेतुका गमकपना नहीं होनेके कारण चक्षुमें तैजसपनेकी सिद्धि नहीं हो सकी । इस कारण उस तैजसत्व हेतुसे चक्षुकी किरणवत्ता नहीं सिद्ध हो पायगी ।
रूपाभिव्यंजने चाक्ष्णां नालोकापेक्षणं भवेत् । तैजसत्वात्प्रदीपादेवि सर्वस्य देहिनः ॥ ४० ॥
दूसरी बात यह है कि यदि सम्पूर्ण नेत्रवाले शरीरी आत्माओंकी चक्षुओंको किरणसहित तेजस माना जावेगा, तब तो चमकीले तेजका विवर्त होनेके कारण चक्षुओंको रूपकी अभिव्यक्ति (ज्ञप्ति ) कराने में अन्य सूर्य, प्रदीप, बिजली आदिकें आलोक या प्रकाशकी अपेक्षा नहीं होना चाहिये । जैसे कि प्रदीप, सूर्य, आदिको रूपके प्रकाशनेमें अन्य सूर्य, दीप, आदिके आलोकांतर की अपेक्षा नहीं होती है । किन्तु मनुष्य, कबूतर आदिको अंधरेमें चाक्षुषप्रत्यक्ष करनेके लिये आलोक, प्रकाशकी अपेक्षा होती देखी जाती है । अतः चक्षुका तैजसपना असिद्ध है ।
यथैकस्य प्रदीपस्य सुस्पष्टार्थप्रकाशने । मंदत्वादसमर्थस्य द्वितीयादेरपेक्षणम् ॥ ४१ ॥ तथाक्ष्णोर्न विरुध्येत सूर्यलोकाद्यपेक्षणं । स्वकार्ये हि स्वजातीयं सहकारि प्रतीक्ष्यते ॥ ४२ ॥
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वैशेषिक यदि यों कहें कि अर्थके बढिया स्पष्ट प्रकाश करनेमें मन्द होनेके कारण असमर्थ हो रहे एक दीपकको जैसे दूसरे, तीसरे, आदि दीपकों की अपेक्षा हो जाती है, तिसी प्रकार मन्द प्रकाशी होने से मनुष्यों के नेत्रोंको भी सूर्य, चन्द्र, प्रदीप, आदिके आलोक, उद्योत, प्रभा आदिकी अपेक्षा करना विरुद्ध नहीं पडेगा। क्योंकि अपने द्वारा करने योग्य कार्यमें अपनी समान जातिवाला सहकारी कारण प्रतीक्षित हो ही जाता है । अतः तैजस नेत्रोंको तैजस सूर्य, दीप आदिकी आकांक्षा होना स्वाभाविक है, हां, रात्रिचरोंके नेत्रोंको दीपककी आवश्यकता नहीं है ।
तदसलोचनस्यार्थप्रकाशित्वाविनिश्वयात् ।
कथंचिदपि दीपादिनिरपेक्षस्य प्रदीपवत् ॥ ४३ ॥