Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
इतश्च भवतीत्याह । __ दूसरे इस हेतुसे भी अप्राप्यकारीपन साध्यकी चक्षुमें सिद्धि हो जाती है । इस बातको आचार्य महाराज कहते हैं।
काचाद्यंतरितार्थानां ग्रहाचाप्राप्तकारिता । चक्षुषः प्राप्यकारित्वे मनसः स्पर्शनादिवत् ॥ १६ ॥
चक्षुको ( पक्ष ) अप्राप्यकारीपना है ( साध्य ), कांच, अभ्रक, स्फटिक, स्वच्छमल आदिसे व्यवहित हो रहे पदार्थोका ग्रहण करनेवाली होनेसे ( हेतु ), जैसे कि मनको अप्राप्यकारीपना है ( अन्वयदृष्टान्त ) । स्पर्शन, रसना आदि इन्द्रियों के समान चक्षुको भी प्राप्यकारी माननेपर तो काचआदिसे व्यवहित हो रहे पदार्थका ग्रहण नहीं हो सकेगा। स्पर्शन, रसना इन्द्रियोंसे शीशीमें धरे हुये पदार्थका तो स्पर्श या रस नहीं जाना जाता है। किन्तु चक्षुसे उस शीशीमें रखे हुए पदार्थका वर्ण जान लिया जाता है,( व्यतिरेकदृष्टान्त )। .
ननु च यचंतरितार्थग्रहणं स्वभावकालांतरितार्थग्रहणमिष्यते तदा न सिदं साधनं चक्षुषि तदभावात् । देशांतरितार्थग्रहणं चेत्तदेव साध्यं साधनं चेत्यायातं । देशांतरितार्थग्राहित्वमेव ह्यमाप्यकारित्वमिति कश्चित्, तदसत् । चक्षुषोपाप्तमर्थ परिच्छेत्तुं शक्तः साध्यत्वात्तत्रापसिद्धत्वादमाप्तकारणशक्तित्वस्यामाप्यकारित्वस्येष्टत्वात् । साधनस्य पुनरंतरितार्थग्रहणस्य स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्धस्याभिधानात् ।
यहां कोई दूसरी शंका उठाता है कि जैनोंने अन्तरित अर्थका ग्रहण करना हेतु दिया तो वह अन्तरितग्रहण क्या स्वभावव्यवहित कालव्यवहित पदार्थीका ग्रहण करना यदि जैनों द्वारा इष्ट किया गया है, तब तो तुम जैनोंका हेतु सिद्ध नहीं है । असिद्ध हेत्वाभास है । क्योंकि चक्षु रूप पक्षमें वह स्वभावव्यवहित, कालव्यवाहित, अर्थका ग्रहण करना हेतु नहीं वर्तता है । यदि अन्तरितार्थ ग्रहणका अर्थ देशव्यवहित अर्थका ग्रहण करना माना जायगा, तब तो वही साध्य और वही साधन हुआ, यह आया । अर्थात्-देशांतरित अर्थका ग्राहकपना (हेतु) ही तो नियमसे अप्राप्यकारीपना ( साध्य ) है। दूरवर्ती पदार्थोको नहीं संबद्ध कर जानलेना साध्य ही तो देशान्तरित अर्थका ग्राहकपना है । साध्यको तो हेतु नहीं बनाना चाहिये । अन्यथा असिद्ध साध्यके समान हेतु भी साध्यसम हो जाता है । हेतु तो वादी प्रतिवादी दोनोंके लिये प्रथमसे ही मान्य होना चाहिये । इस प्रकार कोई वैशेषिकका एकदेशी कह रहा है । सो वह कहना सत्यार्थ नहीं है। क्योंकि नहीं संबद्ध हो रहे अर्थको जाननेके लिये चक्षुकी शक्ति है। इसको अनुमान द्वारा साधा गया है । उस चक्षुमें अप्राप्त अर्थको परिच्छेदन करनेकी शक्ति वैशेषिक आदिके यहां