Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तस्वार्थचिन्तामणिः
इस दशामें हमको चिंता करनेसे क्या पडा है ! यानी अधिक तर्क, युक्ति, दृष्टान्तके विना ही छोटीसी युक्तिसे हमारा सिद्धांत पुष्ट हो जाता है । छोटी बातके लिए तूल बढाना व्यर्थ है। ..
विनाशानंतरोत्पत्तौ पुनर्नाशे पुनर्भवेत् ।
कुतो निरंतरं तेन छादितार्थस्य दर्शनम् ॥ २५॥ - यदि वैशेषिक यों कहें कि विनाशके अनन्तर ही शीघ्र पुनः नवीन स्फटिक उत्पन्न हो जाता है, और फिर शीघ्र चक्षुकिरणोंसे नष्ट कर दिया जाता है, तथा फिर उत्पन्न हो जाता है। ऐसे ही नष्ट होकर फिर उत्पन्न हो जावेगा। दीपकलिकाके समान स्फटिकका उत्पाद और विनाशधारा रूपसे देरतक होता रहता है । अतः वैसा ही नवीन स्फटिक हाथ द्वारा पकड लिया जाता है। इस प्रकार वैशेषिकोंके कहनेपर तो हम पूछेगे कि उस स्फटिकसे आच्छादित हो रहे अर्थका निरंतर दर्शन कैसे हो सकेगा ? अर्थात् चक्षुरश्मियां जब स्फटिकको तोडती फोडती रहेंगी और वह क्षणक्षणमें नया बनता रहेगा, ऐसी दशामें चक्षुरश्मियां भीतर जाकर अर्थके साथ सम्बन्ध नहीं कर सकेंगी। घूमते हुए पहिया चरखा, पंखा आदिके समान झटझट व्यवधान पडता जावेगा। जो कि भीतर रखे हुये पदार्थका दर्शन नहीं करने देगा। अतः स्फटिकसे ढके हुये अर्थका दर्शन नहीं होना चाहिये । किन्तु होता है । तथा उस स्फटिकके ऊपर रक्खे हुये पदार्थका पतन हो जाना चाहिये । क्योंकि स्फटिक कई बार नष्ट भ्रष्ट हो चुका है। को स्पर्शनेन च निभेदशरीरस्य महोंगिनाम् ।
सांतरेणानुभूयेते तस्य स्पर्शनदर्शने ॥२६॥
शरीरधारियोंका स्पर्शन इन्द्रिय करके दूसरे शरीरकी उष्णता भेदन हुये विना ही अनुभूत हो जाती है। किन्तु नष्ट हो रहे उस शरीरके दर्शन और स्पर्शन तो अन्तरसहितपने करके अनुभूत किये जाते हैं। भावार्थ--जहां सतत उत्पाद या विनाश, हो रहा है, उस पदार्थका दर्शन और स्पर्शन तो मध्यमें अभावका अन्तराल डालकर होता है । जैसे कि बादलोंमें बिजली दीखना अथवा चलते हुये पहियेके अरोंका छूना अन्तरालकी पोलसे सहित है, किन्तु यहां प्रकृतमें स्फटिकका दर्शन और स्पर्शन दोनों अन्तरालरहित हो रहे हैं । ऐसी दशामें स्फटिक आदिका शीघ्रतासे नाश या उत्पाद मानना वैशेषिकके न्यायविद्यारहितपनको बतला रहा है। प्रत्यक्ष प्रसिद्ध अर्थका अपलाप करना समुचित नहीं है । - स्फटिकादेराशूत्पादविनाशाभ्यामभेदग्रहणं निरंतरं पश्यतः सततं न तद्भेदाभ्युप. गमस्य बाधकपित्ययुक्तमा वेव दर्शनादर्शनयोस्तत्र प्रसंगात् । स्पर्शनास्पर्शनयोश्च । न च तत्र तदा कस्यचिदुपयुक्तस्यादर्शनास्पर्शनाभ्यां व्यवहिते दर्शनस्पर्शने समनुभूयेते।