Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यकोकवार्तिके
यदि वैशेषिक मनमें यह आशंका रक्खें कि शक्तिस्वरूप चक्षुकरके आंखके ताराओंमें लगा हुआ अंजन ( सुरमा ) नहीं छुआ गया है । अतः उस स्पृष्ट अनवग्रह हेतुका असिद्धपना यही कहा जाता है । इस प्रकार वैशेषिकोंकी मनीषा ज्ञात होनेपर तो आचार्य महाराज उत्तर कहते हैं कि शक्तिमान् पदार्थकी शक्ति अन्य देशमें स्थित हो रहे अर्थके साथ तो युक्त हो जाय, किन्तु उसी शक्तिमान्के देशमें स्थित हो रहे पदार्थ के साथ युक्त नहीं होवे, इस बातको जड आत्माको माननेवाले नैयायिक या वैशेषिकके अतिरिक्त दूसरा कौन चोखा विद्वान् कह सकेगा ! यानी कोई नहीं । मावार्थ-वैशेषिकोंने आत्माको ज्ञानगुणसे सर्वथा मिन ‘माना है। ऐसी दशामें आत्मा अपने गांठके निजस्वरूपसे तो जड ही हुआ। जो मनुष्य दूसरोंके भूषण, वस्त्र, मागकर सम्पन्न बना हुआ है, वह वस्तुतः दरिद्र ही है । जब कि नैयायिक या वैशेषिकोंकी आत्मा जड है, तभी वे ऐसी युक्तिशून्य बातें झांकते हैं कि शक्तिमान् चक्षु तो उत्तमांगमें है और उसकी शक्तियां दूरवर्ती पर्वत आदि पदार्थोके साथ जुड़ जाती हैं । मला विचारो तो सही कि शक्तियां भी कहीं अपने शक्तिमान् अर्थको छोडकर दूरदेशमें ठहर सकती हैं ! अर्थात् नहीं । शक्तियां शक्तमें ही रहती हैं। भले ही वे वहीं बैठी हुई दूर देशमें कार्योको कर देवें, यह दूसरी बात है। किन्तु अपने शक्तिमान् आनयको छोडकर अन्यत्र नहीं जा सकती हैं । शरीर परिमाण बराबर आत्मामें ठहर रहे पुण्य, पाप, हजारो योजन, असंख्ययोजन दूरवर्ती पदार्थोंमें किया, आकर्षण, आदि करा सकते हैं । दूसरी बात जडपनेकी यह है कि चक्षुसे दूर देशमें पडे हुये पदार्थके साथ तो चक्षुकी शक्ति चिपट जाय, किन्तु चक्षुसे अतिनिकट स्पृष्ट हो रहे अंजन, कामल, काजलसे न चिपटे, ऐसी बातोंको चेतना तो नहीं कह सकते हैं ।
व्यक्तिरूपाचक्षुषः शक्तिमतोन्यत्र दूरादिदेशे तिष्ठतार्थेन घटादिना शक्तींद्रियं युज्यते न पुनर्व्यक्तिनयनस्थेनांजनादिनेति कोन्यो जडात्मवादिनो ब्रूयात् । -:
: शक्तिको धारनेवाले व्यक्तिरूप चक्षुसे अन्य स्थलपर दूर, अति दूर आदि देशोंमें स्थिर हो रो, घट, वृक्ष, पर्वत, चन्द्रमा आदि पदार्थोके साथ तो शक्तिरूप चक्षुइन्द्रिय संयुक्त हो जाय, किंतु फिर व्यक्ति चक्षुमें स्थित हो रहे अंजन, पलक आदिके साथ संयुक्त नहीं होवे, इस ढपोल शंखी सिद्धान्तको जडआत्मवादी पण्डितके सिवाय और कौन दूसरा विज्ञ कह सकेगा ! अर्थात् चैतन्यस्वरूप आत्माको कहनेवाला विद्वान् ऐसी थोथी बातोंको नहीं कहता फिरता है । अतः हमारा स्पृष्ट अर्थका अप्रकाशकपन हेतु असिद्ध हेत्वाभास नहीं हैं, सद्धेतु है।
दूरादिदेशस्थेनार्थेन व्यक्तिचक्षुषः संबंधपूर्वकं चक्षुः संबध्यते तद्वेदनस्यान्यथानुपपत्तेरिति चेत् स्यादेतदेवं यद्यसंबंधेन तत्र वेदनमुपजनयितुं नेत्रेण न शक्येत मनोवत् । न हि माप्तिरेव तस्य विषयज्ञानजनननिमित्तमंजनादेः प्राप्तसामवेदनात् । योग्यतायास्तत्राभावात्त