Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ श्लोक वार्तिक
साथ अस्पर्श होने का कोई अन्तर नहीं है । शिरके चार अंगुल ऊपर छतमें लटक रहे पदार्थका जैसे कोई बोझ शिरपर नहीं है, वैसे ही चार हाथ, दस हाथ ऊपर लटक रहे भारी पदार्थका भी शिरपर कोई लदना नहीं है। एक दिन पूर्वमें या हजार वर्ष पूर्व में नष्ट होगये पदार्थका असद्भाव वर्तमान में एकसा है । कोई अन्तर नहीं है । अन्धी बहिनका भाईके साथ थोडा या अधिक हुआ विश्लेष कसा है । अर्थात् प्राप्यकारी चार इन्द्रियोंकी विषयके साथ भावरूप प्राप्तिका तो भेद हो सकता है । किन्तु अप्राप्यकारी दो इन्द्रियोंकी विषयोंके साथ अभावस्वरूप होती हुई अप्राप्ति तो न्यारी न्यारी नहीं है ।
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तव्यवधायक देशास्पदादप्राप्तिरपि भिद्यते एवेति चेत् किमयं पर्युदासप्रतिषेधः प्रसज्यप्रतिषेधो वा ? प्रथमपक्षेऽक्षार्थाप्राप्तिरन्या न वार्थः पुनरेवं " नञिव युक्तमन्यसदृशाधि - करणे तथा ह्यर्थगतिः” इति वचनात् सा च नावग्रहादेः कारणमिति तद्भेदेपि कुतस्तद्भेदः । द्वितीयपक्षे तु प्राप्तेरभावोऽमाप्तिः सा च न भिद्यतेऽभावस्य स्वयं सर्वत्राभेदात् ।
यदि कोई यों कहें कि उन दोनोंके मध्य में अन्तराल करानेवाले देशोंका आधान होजानेसे अप्राप्ति भी तो भिन्न भिन्न हो जाती है। शत्रुका पांचसौ कोस, दस कोस, एक कोस, पचास गज दूर रहना न्यारे न्यारे प्रकारके संकटका उत्पादक है। सौ वर्ष, एक वर्ष, एक दिन, एक घडी, पूर्वकालों में मरे हुये इष्टप्राणीका वियोग भिन्न भिन्न जातिके शोकोंका उत्पादक है । परदेशसे धन, यश, कमाकर आरहे पुरुषको मार्ग में मांता, पुत्र, पत्नीवाली जन्मभूमिके साथ रह गया थोडा थोडा देशव्यवधान अन्य अन्य प्रकारोंकी चित्तमें, गुदगुदियें उत्पन्न कराता है । इस प्रकार कहनेपर तो हम जैन पूछेंगे कि अप्राप्ति शद्वमें पडा हुआ यह नञ् क्या उत्तरपदके पूर्वमें मिल रहा और तद्भिन्न तत्सदृशको ग्रहण करनेवाला पर्युदास निषेध है ? अथवा क्या क्रियाके साथ अन्वित होकर सर्वथा निषेध करनेवाला प्रसज्यअभाव है ? बताओ । प्रथमपक्ष ग्रहण करनेपर अर्थकी अप्राप्ति तो न्यारी हो जायगी । किन्तु फिर अर्थ तो इस प्रकार न्यारा न्यारा नहीं हो सकेगा । क्योंकि परिभाषाका ऐसा वचन प्रसिद्ध हो रहा है कि पर्युदासपक्षमें नञ्का अर्थ इवकार युक्त है । तिस प्रकार नियमसे अन्य सदृशं अधिकरणमें अर्थकी ज्ञप्ति हो जाती है । " भूतले घटाभावः यहाँ घटाभावका अर्थ रीता भूतल है । किन्तु वह अप्राप्ति तो चक्षु, मन द्वारा हुये अवग्रह, ईहा, आदि ज्ञानका कारण नहीं है। अतः उस एक हाथ, सौ धनुष, पांचसौ योजन आदि देश भेदसे अप्राप्तिका भेद होनेपर भी उन अवग्रह आदि ज्ञानोंमें भला मेद कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं । इस कारण सिद्ध होता है कि प्राप्तिका भेद हो जानेसे स्पार्शन या श्रोत्रजन्य व्यंजनावग्रहों में तो कुछ अन्तर है । किन्तु चक्षु, मनसे हुये अर्थावग्रहों में एकसी अप्राप्ति होनेके कारण अन्तर नहीं है । द्वितीय प्रसज्यपक्षका आश्रय करनेपर तो प्राप्तिका अभाव अप्राप्ति पडेगा । किन्तु वह अप्राप्ति तो स्वयं भिन्न नहीं हो रही है । अभाव पदार्थ तो स्वयं सर्वत्र मेद नहीं रखता हुआ एकसा बर्त रहा
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