Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
नहीं हैं। अतः उक्तज्ञान श्रुतज्ञान नहीं हो सकते हैं । कोई भी प्रत्यक्षज्ञान भले ही वह अवधिज्ञान या केवलज्ञान भी क्यों नहीं होय, विचाररूप तर्कणाएं नहीं कर सकता है । इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष या सर्वज्ञ प्रत्यक्ष ये भडाक सीदें झट पदार्थीको जान लेते हैं "यों होता तो त्यों होता", यह इतने मूल्यका होना चाहिये, “ उस रोगीको यदि हम औषधि देते तो अवश्य लाभ होता", इत्यादिक विचार प्रत्यक्ष ज्ञानोंमें नहीं होते हैं। दूरवर्ती वृक्ष आदिके प्रत्यक्ष ज्ञानोंमे कोई विचार नहीं हो रहा है । अतः यह श्रुतज्ञान नहीं है । शंकाकार द्वारा इनको श्रुतज्ञान कहना युक्तियों ( अनुमान ) से विरुद्ध हुआ तथा उन दूरवती वृक्ष आदिके ज्ञानोंको 'श्रुतज्ञानपना आगमप्रमाणसे भी विरुद्ध पडता है । जिस कारणसे कि प्रतिभाशाली विद्वानोंकरके वैसा आगमप्रमाण उक्त ज्ञानोंमें श्रुतज्ञानसे भिन्नताको निरूपणेवाला अनुभव किया जा रहा है।
न चास्पष्टतर्कणं श्रुतस्य लक्षणं स्मृत्यादेरपि श्रुतत्वप्रसंगात् । मतिगृहीवेर्थेनिंद्रियबलादस्पष्टं स्वसंवेदप्रत्यक्षादन्यत्वात्तर्कणं नानास्वरूपप्ररूपणं श्रुतमिति तस्य व्याख्याने 'श्रुतं मतिपूर्व" इत्येतदेव लक्षणं तथोक्तं स्यात् तच्च न प्रकृतज्ञानेस्ति । न हि साक्षाचक्षुर्मतिपूर्वकं तत्स्पष्टप्रतिभासानंतरं तदस्पष्टावभासनप्रसंगात् । नापि परंपरया लिंगादिश्रुतज्ञानपूर्वकत्वेन तस्याननुभवात् । न चात्र यादृशमक्षानपेक्षं पादपादि साक्षात्करणपूर्वकं प्ररूपणमस्पष्टं तादृशमनुभूयते येन श्रुतज्ञानं तदनुमन्येमहि । श्रुतस्मृत्याद्यपेक्षया स्पष्टत्वात् । संस्थानादिसामान्यस्य प्रतिभासनात् । सन्निकृष्टपादपादिप्रतिभासनापेक्षया तु दविष्ठपादपादिप्रतिभासनमस्पष्टमक्षजमपीति युक्तोऽनेन व्यभिचारः प्रकृतहेतोः।
दूसरी बात यह है कि अविशदरूपसे विकल्पनाऐं करना श्रुतज्ञानका लक्षण नहीं है। अन्यथा स्मृति, तर्कज्ञान, आदिको भी श्रुतज्ञानपनेका प्रसंग हो जायगा । ये ज्ञान भी अपने विषयोंकी अविशद विकल्पनाऐं करते हैं। यदि आप शंकाकार “ अस्पष्टतर्कणं श्रुतं " इस लक्षणवाक्यका इस प्रकार व्याख्यान करेंगे कि मतिज्ञानद्वारा गृहीत किये गये अर्थमें मन इन्द्रियकी सामर्थ्यसे जो अविशदप्रकाशी यानी स्वसम्वेदनप्रत्यक्षसे भिन्नपना होनेके कारण तर्कण हुआ है, यानी नाना खरूपोंका अच्छा निरूपण हो रहा है, वह श्रुतज्ञान है । इस पर आचार्य कहते हैं कि ऐसा उसका परिभाषण करनेपर तो हमारे सूत्रकारद्वारा कहा जानेवाला " श्रुतं मतिपूर्व " इस प्रकार यह लक्षण ही तैसा व्याख्यान करनेसे कहा गया समझा जायगा किन्तु तैसा वह श्रुतज्ञानपना तो प्रकरणप्राप्त दूरवर्तीज्ञान या उलूकज्ञानोंमें नहीं है । देखिये, वह दूर वृक्ष आदिकका ज्ञान साक्षात् रूपसे चाइन्द्रियजन्य मतिज्ञानको कारण मानकर उत्पन्न नहीं हुआ है। यदि ऐसा होता तो उस स्पष्ट प्रतिमासके अव्यवहित काल पीछे उस दूरवर्ती वृक्ष आदिका अविशद प्रतिभास होनेका प्रसंग होगा । भावार्थ-इद्रियजन्य मतिज्ञानोंके पीछे जो श्रुतज्ञान होते हैं, वे स्पष्ट प्रतिभासोंके पीछे