Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
ही ज्ञान हो सकता है। चाहे यों कइलो कि अव्यक्त शद्वादिकको जाननेवाला ज्ञान अस्पष्टरूप व्यंजनावग्रह ही होगा, ईहा आदिक नहीं।
अध्यक्षत्वं न हि व्याप्तं स्पष्टत्वेन विशेषतः । दविष्ठपादपाध्यक्षज्ञानस्यास्पष्टतेक्षणात् ॥ ६॥ विशेषविषयत्वं च दिवा तामसपक्षिणां । तिग्मरोचिर्मयूखेषु भुंगपादावभासनात् ॥७॥
अध्यक्षपनकी स्पष्टपनेके साथ विशेषरूपसे व्याप्ति बन रही नहीं है । क्योंकि अधिक दूरवर्ती वक्षके प्रत्यक्षज्ञानका अस्पष्टपना देखा जा रहा है । तथा विशेषोंका विषय करनापन भी प्रत्यक्षपनेके साथ व्याप्त नहीं है । अंधकारमें देखनेवाले उल्लू, चिमगादर, आदि पक्षियोंको दिनके अवसरपर सूर्यकी किरणोंमें भ्रमरके पावोंका प्रतिभास होता रहता है । अर्थात्-प्रत्यक्षज्ञान होकर भी कोई कोई अस्पष्टरूपसे सामान्यको विषय कर लेते हैं । स्पष्टरूपसे सभी विशेष अंशोंका जान लेना प्रत्यक्षजानके लिये आवश्यक नहीं है । " विशदं प्रत्यक्षम् " यह लक्षण सम्पूर्ण सूक्ष्म विशेष अंशोंके स्पष्ट ग्रहणकी अपेक्षा करनेपर कतिपय प्रत्यक्षोंमें नहीं घटित होता है । दूरवर्ती वृक्षका ज्ञान अविशद है। और तामस पक्षियोंका दिनमें देखना विशेषांशोंको जाननेवाला नहीं है । अतः इन्द्रियोंसे जन्य होता हुआ भी व्यंजनावग्रह अस्पष्ट है । यह "विशदं प्रत्यक्षं" के अनुसार सांख्यवहारिक प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है । इन्द्रियजन्य ज्ञानोंको उपचारसे प्रत्यक्ष माना तो गया है । किन्तु व्यञ्जनावग्रहको परोक्ष कहा गया है।
ननु च दूरतमदेशवर्तिनि पादपादौ ज्ञानमस्पष्टमस्मदादेरस्ति विशेषाविषयं चादित्यकिरणेषु ध्यामलाकारमधुकरचरणवदवभासनमुलूकादीनां प्रसिद्धं । न तु तदक्षजं श्रुतमस्पष्टत्वाच्छ्रतपस्पष्टतर्कणमिति वचनात् । ततो न तेन व्यभिचारोऽक्षजत्वस्य हेतोः स्पष्टत्वे साध्ये व्यंजनावग्रहे धर्मिणीति कश्चित् ।
यहां किसी विद्वान्का अनुनय है कि बहुत अधिक दूर देशमें वर्त रहे वृक्ष, पशु आदि पदार्थोंमें हम सदृश आदिक अल्पज्ञानियोंको अस्पष्टज्ञान हो रहा है । और वह पदार्थोके सूक्ष्म विशेष अंशोंको विषय करनेवाला भी नहीं है । तथा अंधेरेमें देखनेवाले उल्लू, चिमगादर आदि तामस पक्षियोंको दिनके अवसरपर सूर्यकी किरणोंमें उत्पन हुआ थोडा, काला काला, भ्रमरके चरण समान, दीख जाना तो विशेष अंशको नहीं विषय करनेवाला प्रसिद्ध है। किन्तु हम कहते हैं कि यह ज्ञानइन्द्रियोंसे जन्य ही नहीं है । प्रत्युत अविशद होनेके कारण श्रुतज्ञान है । अविशद विकल्परूप तर्कणाएं करनेवाला ज्ञान श्रुतज्ञान होता है । इस प्रकार आर्ष ग्रन्थों में कहा गया है । तिस कारणसे