Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थ चिन्तामणिः
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अडतालीस भेद किये हैं। किन्तु अर्थकी बहु आदिक बारह पर्यायोंमें स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमानस्वरूप मतिज्ञान भी प्रवर्त जाते हैं, जैसा कि बहु, बहुविध, आदि सूत्रकी बत्तीसवीं वार्तिकमें श्रीविद्यानन्द आचार्यने बतला दिया है । निकट कहे गये इन तीन, चार, सूत्रोंका एक वाक्य बनाकर एक मतिज्ञान समझ लेना चाहिये । द्रव्य और पर्याय ये वस्तुके अंश हैं। श्रुतज्ञानके एकदेशरूप द्रव्यार्थिक नयसे वस्तुका द्रव्य अंश जान लिया जाता है । और पर्यायार्थिक नयसे परिगणित पर्यायोंको जान लिया जाता है। फिर भी मतिज्ञान और नयोंसे अवशिष्ट बहुतसा बच रहा ऐसा प्रमाणात्मक श्रुतज्ञान तथा अवधिज्ञान मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञानसे जानने योग्य
अनन्तप्रमेय वस्तुमें पड़ा रहता है । उन सबका पिण्डस्वरूप वस्तु है । यहां मतिज्ञान के प्रकरणमें मतिज्ञान द्वारा जानने योग्य द्रव्य और पर्यायोंका तदात्मक पिण्ड अर्थ पकडा गया है। केवल द्रव्य ही या पर्यायें ही पूरा अर्थ नहीं हैं । जैसे कि एक पाया या पाटी पूरी खाट नहीं है। वस्तुके धर्म परस्परमें और वस्तुके साथ अपेक्षा रखते हैं । अतः बहु आदिक धर्म या धर्मवाले धर्मीकी प्रधानतासे अवग्रह आदिक हो जाते हैं । साझेकी वस्तुमें भले ही नाम किसीका होय किन्तु जानना रूप कार्य सर्व अर्थका होता है । एकान्तवादियों द्वारा उठाये गये दोष स्याद्वादियोंपर लागू नहीं होते हैं। क्योंकि हम कथंचित् तादात्म्यरूप वृत्ति मानते हैं । धर्मीकी धर्मोमें वृत्ति मानना भी हम इष्ट कर लेते हैं । कपडेमें सूत हैं, वृक्षमें फल हैं । वह्निमें निष्ठत्व सम्बन्धसे पर्वत रह जाता है। कथंचित् अभेद हो जाने पर कोई भी धर्म या धर्मी किसीपर भी निवास करो, कोई क्षति नहीं है । राजा प्रजाके आश्रित है और प्रजा राजाके आश्रित है । दण्ड और पुरुषके समान कचित् भिन्न पदार्योंमें भी धर्मधर्मीभाव बन जाता है । किन्तु मतिज्ञान अभेददृष्टिकी प्रधानतासे धर्मधर्मियोंको विषय करता है । एकान्तवादियोंके यहां वृत्तिके दोष आते हैं। हां, अनेकांतवादमें विरोध आदिक कोई दोष नहीं आते हैं । क्योंकि तीसरी ही जातिके कथंचित् भेद, अभेदको मानकर चित्र ज्ञान आदिके समान धर्मधर्मी भाव माना गया है। केवल द्रव्य ही या केवल पर्याय ही अथवा परस्परानपेक्ष दोनों ही कोई अर्थ नहीं है । जैसा कि अद्वैतवादी या बौद्ध अथवा वैशेषिक मान रहे हैं। जैनसिद्धांतमें वस्तुकी बहुत अच्छी परिभाषा की गयी है । अतः ऐसे वस्तुभूत अर्थके बहु आदिक धर्मोमें अवग्रह आदिक ज्ञान प्रवर्त जाते हैं।
वस्त्वर्थो भिदभिज्जात्यन्तरालीढवपुर्मतेः ।। द्रव्यपर्यायतादात्म्यं स्वसाकुर्वश्च गोचरः॥१॥
प्रसंग प्राप्तोंमें विशेष नियम करनेके लिये श्रीउमास्वामी महाराज शिष्योंकी व्युत्पत्तिके वर्धनार्थ अग्रिमसूत्रको कहते हैं।