Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थश्लोक वार्तिके
ततो द्रव्यपर्यायात्मार्थो धर्मी व्यक्तः प्रतीयतामव्यक्तस्य व्यंजनपर्यायस्योत्तरसूत्रे विधानात् । द्रव्यनिरपेक्षस्त्वर्थपर्यायः केवलो नार्थोत्र तस्याप्रमाणकत्वात् । नापि द्रव्यमात्रं परस्परं निरपेक्षं तदुभयं वा तत एव । न चैवंभूतस्यार्थस्य विवर्तानां बहादीतरभेदभृतामवग्रहादयो विरुध्यंते येन एवैकं मतिज्ञानं यथोक्तं न सिध्येत् ।
"
तिस कारण सिद्ध हुआ कि द्रव्य और पर्यायोंके साथ तदात्मक हो रहा अर्थ ही यहां व्यक्त यानी अधिक प्रकट धर्मी समझ लेना चाहिये । व्यंजन पर्यायस्वरूप अव्यक्तधर्मीका उत्तरवर्त्ती " व्यंजनास्यावग्रहः इस सूत्र में विधान किया जायगा । अधिष्ठाता द्रव्यकी सर्वथा नहीं अपेक्षा रखता हुआ केवल अर्थपर्याय ही तो यहां अर्थ नहीं निर्णीत किया गया है । क्योंकि उस अकेली अपर्यायको ही वस्तुनेकी इप्ति करना अप्रामाणिक है । तथा अधिष्ठित अर्थपर्यायोंसे रीता केवल · द्रव्य ही यहां अर्थ नहीं लिया गया है। क्योंकि केवल द्रव्यको पर्यायोंसे रहित जानना अप्रामाणिक है । अथवा परस्परमें एक दूसरेकी नहीं अपेक्षा रखनेवाले केवल द्रव्य या कोरे पर्याय ये दोनों भी यह अर्थ नहीं है । कारण वही है । यानी आत्माकी नहीं अपेक्षा रखनेवाला ज्ञान और ज्ञानकी अपेक्षा नहीं रखनेवाला आत्मा जैसे प्रमाणका विषय नहीं है, उसी प्रकार द्रव्यकी नहीं अपेक्षा रखनेवाला निराधार पर्याय और पर्यायोंकी नहीं अपेक्षा रखनेवाला आधेय रहित द्रव्य ये दोनों भी कोई पदार्थ नहीं हैं । इनमें प्रमाण ज्ञानोंकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती है । भले ही द्रव्यार्थिक नय या पर्यायार्थिक नय प्रवर्त जावें, फिर भी सुनयोंको अन्य अंशोंका निराकरण नहीं करना आवश्यक है । " निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षं वस्तुतेऽर्थकृत् " । अतः परस्परापेक्ष द्रव्य और पर्यायों के साथ तदात्मक हो रही वस्तु ही अर्थ है । इस प्रकार वस्तुभूत हो रहे अर्थके बहु, बहुविध और उनसे इतर अल्प अल्पविध आदि भेदोंको धारनेवाले पर्यायोंको विषय कर रहे अवग्रह आदिक ज्ञान विरुद्ध नहीं पड़ते हैं। जिससे कि सर्वज्ञ आम्नाय या युक्ति अनुभवोंके अनुसार यथार्थ कहा गया एक मतिज्ञान सिद्ध नहीं हो सके अर्थात् — द्रव्य, पर्याय आत्मक अर्थके बहु आदिक बारह भेदवा पर्यायोंको विषय कर रहे अवग्रह आदि और स्मृति आदिक मतिज्ञान हो मतिज्ञानपने करके एक हैं ।
जाते हैं । वे सब
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इस सूत्र का सारांश |
इस सूत्र में प्रथम ही अवग्रह आदि ज्ञानोंके विषयभूत बहु आदिक धर्मोके धारनेवाला धर्मी अर्थ विचारा गया है । जैन सिद्धान्त अनुसार पदार्थमें अनेक प्रयोजनोंको साधनेवाले अनेक धर्म पराधीन होकर वे धर्म प्रतीत हो रहे हैं । मतिज्ञानके तीनसौ छत्तीस धर्मोकी अपेक्षा दो सौ अठासी और अव्यक्त व्यंजनके धर्मोकी अपेक्षा
माने गये हैं । धर्मी अर्थके भेदों में अर्थके बहु आदिक