Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
चिन्ताद्वारा विषय किये गये अर्थमें अनुमानज्ञानकी प्रवृत्ति मी तिस ही कारणसे विरुद्ध नहीं है। उन ज्ञेय विषयोंमें व्याप्तिज्ञानरूप चिन्ताकी प्रतीति हो रही है । जहां धूआं होता है वहां अग्नि होती है, जो कृतक है, वह अनित्य है, इत्यादि व्याप्तिज्ञान प्रत्यभिज्ञेय विषयमें प्रतीत हो रहे हैं । और व्याप्तिज्ञानसे जाने जा चुके विषयमें यह पर्वत अग्निमान है, यह घट अनित्य है, इत्यादिक अनुमान ज्ञान हो रहे देखे जाते हैं। और इन पूर्वके ज्ञानोंको मूल कारण मानकर उत्पन्न हुई प्रवृत्तियां निति हो रही हैं। प्रत्यभिज्ञान, तर्कज्ञान, स्वार्थानुमान ज्ञानोद्वारा सोपानपर चरण रखना, भले बुरे मनुष्यका परिचय करना, पर्वतमेसे अग्नि लाना, आदि प्रवृत्तियां अभ्रान्त होकर प्रतीत की जा रही हैं । इस बातको हम पहिले प्रकरणोंमें निश्चित कर चुके हैं। यहांतक बहु, बहुविध, दोनोंका विचार कर दिया है।
क्षणस्थायितयार्थस्य निःशेषस्य प्रसिद्धितः । क्षिप्रावग्रह एवेति केचित्तदपरीक्षितम् ॥ ३६ ॥ स्थास्नूत्पित्सुविनाशित्वसमाक्रान्तस्य वस्तुनः। समर्थयिष्यमाणस्य बहुतोबहुतोग्रतः ॥ ३७॥
अब यहां बौद्धोंका पूर्वपक्ष है कि सम्पूर्ण घट, पट, आकाश, आत्मा, आदिक अर्थोकी एक क्षणतक ही स्थायीपनेकरके प्रसिद्धि हो रही है । इस कारण शीघ्र अवग्रह ही होना तो ठीक है। किन्तु अक्षिप्र अवग्रह किसीका नहीं हो सकता है । कारण कि एक क्षणसे अधिक कालतक कोई भी पदार्थ नहीं स्थिर रहता है । इस प्रकार कोई क्षणिक वादी विद्वान् कह रहे हैं। ग्रन्थकार कहते हैं कि उनका वह कहना परीक्षा किया गया नहीं है। क्योंकि स्थिति स्वभावसहितपन, और उत्पत्तिकी ठेवसे युक्तपन, तथा विनाशशीलका धारीपन, इन तीन धर्मोसे चारों ओर घेर ली गयी वस्तुका बहुत बहुत युक्तियोंसे अग्रिम ग्रन्थमें समर्थन करनेवाले हैं । अर्थात्-वस्तु कालान्तर तक ठहरती हुयी ध्रुवरूप है । सूक्ष्म ऋजुसूत्रनयकी दृष्टि से एक एक पर्याय भले ही क्षणतक ठहरे किन्तु व्यवहार नय या सकलादेशी प्रमाणद्वारा वस्तु अधिक कालतक ठहरती हुयी जानी जा रही है । अतः ध्रुवरूपसे वस्तुके अवग्रह, ईहा आदि ज्ञान हो सकते हैं ।
कौटस्थ्यात्सर्वभावाना परस्याभ्युपगच्छतः।
अक्षिप्रावग्रहैकांतोप्यतेनैव निराकृतः ॥ ३८ ॥ ... इस उक्त कथनद्वारा सम्पूर्ण पदार्थोको कूटस्थ नित्य माननेवाले विद्वान्का भी निराकरण
कर दिया गया समझलेना चाहिये । कारण कि सम्पूर्ण पदार्थ उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, इन तीन स्वभावोंसे युगपत् समालीढ हो रहे हैं । अतः सम्पूर्ण पदार्थोको कूटस्थ नित्यपना होनेके कारण अक्षिप्र अवग्रहको ही चारों ओर स्वीकार कर रहे, दूसरे कापिल विद्वानका अक्षिप्र अवग्रह एकान्त