Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तवार्यश्लोकवार्तिके
आदिक ज्ञान होना असिद्ध ही है । क्योंकि विरोध है । यानी जो प्राप्यकारी है, वे अनिसृत अनुक्तको नहीं जान सकते हैं । और जो पदार्थ ( इन्द्रियां ) अनिसृत अनुक्त अर्थोको जान रहे हैं, वे सम्बन्धी विषयोंको प्राप्त कर प्राप्यकारी नहीं बन सकते हैं। हाथीका पूरा शरीर जब जलसे निकला ही नहीं है, तो उसका स्पर्शन आदि इन्द्रियोंसे ज्ञान भला कैसे हो सकता है ! जो वक्ताके मुखसे कहा गया पदार्थ नहीं है, उसका चार इन्द्रियोंसे कथमपि ज्ञान नहीं हो पावेगा । यदि फिर भी जैन उन अनिसृत अनुक्त अर्थोके अवग्रह आदिक ज्ञान हो जानेकी उपपत्ति करेंगे तो वे चार इन्द्रियां चक्षुके समान प्राप्यकारी नहीं हो सकेंगी। यानी चक्षुके समान चार इन्द्रियां भी अप्राप्यकारी बन जावेंगी । चक्षुका भी अप्राप्यकारित्व यही है कि चक्षुको दूरवर्ती अप्राप्त अर्थके परिच्छेद करनेका हेतुपना है। और वह अप्राप्यकारीपना अनिसृत अनुक्त अर्थोके अवग्रह आदि ज्ञानोंकी कारण हो रही स्पर्शन आदिक इन्द्रियों के भी बन रहा है। ऐसी दशामें चार इन्द्रियोंको भी अप्राप्यकारीपना प्राप्त होता है, जो कि हम वैशेषिकोंको और तुम जैनोंको भी इष्ट नहीं है। इस प्रकार कोई वृद्ध वैशेषिक कह रहे हैं । अब आचार्य महाराज उत्तर कहते हैं कि
तन्नानिसृतभावस्यानुक्तस्यापि च कैश्चन । सूक्ष्मैरंशैः परिप्राप्तस्याक्षेस्तैरवबोधनात् ॥ ४०॥
वह किन्हीं विद्वानोंका कहना उचित नहीं है। क्योंकि अनिसृत पदार्थ और अनुक्तपदार्थोकी भी उनके सूक्ष्म अंशोंकरके केई ओरसे प्राप्तिरूप सम्बन्ध हो जाता है। तमी प्राप्त हो रहे विषयका उन स्पर्शन, रसन, घ्राण, श्रोत्र, इन्द्रियोंकरके अवग्रह आदिरूप ज्ञान होता है। भावार्थ- चार हाथ दूर रखी हुयी अग्निको हम स्पर्शन इन्द्रियसे छूकर जान लेते हैं। यहां अग्निके चारों ओर फैले हुये स्कन्ध पुद्गल उस अग्निके निमित्तसे उष्ण हो गये हैं । अग्निसे जली हुयी लकडी जैसे अग्नि कही जाती है, वैसे ही अभेददृष्टि से वे उष्णस्कन्ध अग्निस्वरूप माने जाते हैं । अतः सूक्ष्म अंशोंकर विस्तरी हुयी उस चार हाथ दूरकी अग्निको ही छूकर हमने यहांसे स्पर्शन किया है। इसी प्रकार दूर कूटी जा रही खटाई या कुटकीका सूक्ष्म अंशोंसे रसना द्वारा संसर्ग होकर ही रासनप्रत्यक्ष हुआ है । तथा इत्रकी शोशीके दूर रहते हुये भी इनके पारिणामिक छोटे छोटे अंशोंको नासिका द्वारा प्राप्त कर ही अनिसृतपदार्थकी गन्धको सूंघा जाता है। दूरवर्ती पौद्गलिक शब्दके परिणति द्वारा फैलकर छोटे छोटे अवयवोंकरके कानतक आ जानेपर ही श्रावण प्रत्यक्ष होता है । अतः चार इन्द्रियोंके प्रध्यकारीपनकी रक्षा होते हुए अनिसृत और अनुक्त अर्थोके अवग्रह आदिक ज्ञान सिद्ध हो जाते हैं । कोई दोष नहीं है । प्रायः सम्पूर्ण पदार्थोकी पारिणामिक लहरें चारो ओर फैलकर अन्य निकटवर्ती पदार्थोपर अपने प्रभावोंको डाल देती हैं, जैसे कि चमकदार पदार्थके निमित्तसे उसके निकटवर्ती अनेक पदार्थ चमक जाते हैं । दुर्गन्ध वायुसे चारों ओरके पदार्थ दुर्गन्धित हो