Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
भी इस कथनकरके खण्डित कर दिया गया है । सांख्यमती आत्माको कूटस्थ नित्य स्वीकार करते हैं । प्रकृतिको परिणामी नित्य मानते हैं, जब कि परिणामका अर्थ उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य नहीं कर आविर्भाव, तिरोभाव, किया जा रहा है, तो प्रकृति भी कूटस्थ नित्य नहीं है। आत्मा, आकाश, परमाणु आदि भी प्रतिक्षण नवीन नवीन पर्यायोंको धारते हैं । सूर्य, चंद्रमा आदि विमानोंमें भी अनंत. परमाणुये मिलते निकलते रहते हैं । वज्र, हीरा, सेना आदि कठोर पदार्थ या निविड वस्तुयें भी पहिले समयके आकारोंका छोडना, उत्तरसमयवर्ती नवीन पर्यायोंको लेना, कालान्तर स्थायी स्वभावसे ध्रुव रहना, इन तीन परिणामोंको अपने तदात्मक परिणाम करते रहते हैं ।
क्षिप्रावग्रहादिवदक्षिणावग्रहादयः संति त्रयात्मनो वस्तुनः सिद्धेः।
शीघ्र अवग्रह हो जाना, शीघ्र ही ईहाज्ञान हो जाना, आदिके समान अक्षिप्रके अवग्रह, ईहा आदि ज्ञान भी हो जाते हैं । क्योंकि उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, इन तीन अवयव आत्मक वस्तुकी प्रमाणोंसे सिद्धि हो रही है । क्षिप्र और अक्षिप्रका विचार हो चुका ॥
प्राप्यकारींद्रियैर्युक्तोऽनिसृतानुक्तवस्तुनः ।
नावग्रहादिरित्येक प्राप्यकारीणि तानि वा ॥ ३९ ॥
यहां वैशेषिकोंका पूर्वपक्ष है कि ज्ञेय पदार्थोके साथ सम्बन्ध कर प्रत्यक्षंज्ञान करानेवाली स्पर्शन इन्द्रिय, रसना इन्द्रिय, घ्राण इन्द्रिय और कर्ण इन्द्रियों करके तो सम्पूर्ण नहीं निकली हुयी अनिसृत वस्तुके और वाचकों द्वारा नहीं कही जा चुकी अनुक्त पदार्थके साथ चार इन्द्रियोंका सम्बन्ध नहीं हो सका है। जैनोंने " पुढे सुणोदि सई अपुढ पुणवि पस्सदे रूवं । गंधं रसं च पासं पुढे बद्धं विजाणादि" | जीव कानसे छूये हुये शब्दको सुनता है। ये विना ही रूपको दूरसे देख लेता है । तथा गंध, रस और स्पर्शको तो छूये हुये और बंधे हुओंको अच्छा जान पाता है, यह सिद्धान्त माना है । अतः प्राप्यकारी चार इन्द्रियोंद्वारा अनिसृत, अनुक्त अर्थके अवग्रह आदिक नहीं हो सकेंगे। यदि स्पर्शन, रसना, घ्राण, श्रोत्र इन्द्रियोंकरके अनिसृत, अनुक्तके अवग्रह आदिक ज्ञान मान लिये जायेंगे तो वे चारों इन्द्रियां चक्षुके समान अप्राप्यकारी हो जावेंगी, जो कि जैनोंको इष्ट नहीं हैं। इस प्रकार कोई एक वादी कह रहे हैं। __प्राप्यकारिभिरिंद्रियैः स्पर्शनरसनघ्राणश्रोत्रैरनिसृतस्यानुक्तस्य चार्थस्यावग्रहादिरनुपपन्न एव विरोधात् । तदुपपन्नत्वे वा न तानि प्राप्यकारीणि चक्षुर्वत् । चक्षुषोपि ह्यप्राप्तार्थपरिच्छेदहेतुत्वमप्राप्यकारित्वं तच्चानिसृतानुक्तार्थावग्रहादिहेतोः स्पर्शनादेरस्तीति केचित् ।
उन वैशेषिकोंके वक्तव्यका विवरण यों है कि विषयोंसे सम्बन्धकर ज्ञान करानेवाली प्राप्यकारी त्वचा, जीभ, नाक, कान इन चार इन्द्रियोंकरके अनिसृत अनुक्त अर्थके अवग्रह