Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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योगिज्ञानवदिष्टं तबाद्यर्थावभासनम् । ज्ञानमेकं सहस्रांशुप्रकाशज्ञानमेव चेत् ॥३१॥ तदेवावग्रहाद्याख्यं प्राप्नुवत् किमु वार्यते । न च स्मृतिसहायेन कारणेनोपजन्यते ॥ ३२ ॥ बहाद्यवग्रहादीदं वेदनं शाब्दबोधवत् ।
येनावभासनाद्भिनं ग्रहणं तत्र नेष्यते ॥ ३३ ॥
यदि वैशेषिक यों कहें कि सर्वज्ञ योगीके ज्ञान समान वह ज्ञान बहु, बहुविध आदि अर्थाका प्रकाशनेवाला हमने इष्ट किया है । सहस्रकिरणवाले सूर्यके प्रकाश समान एक ज्ञान ही अनेकोंका प्रतिभास कर देता है । इस प्रकार कहनेपर तो हम जैन कहते हैं कि तब तो वही अनेकग्राही एक ज्ञान अवग्रह नामको प्राप्त हो रहा संता क्यों रोका जा रहा है ? वैशेषिक यदि यों कहें कि जैसे शब्दजन्यज्ञान शाबोध करनेपर पूर्व पूर्व समयोंके उच्चारित होकर नष्ट होते जा रहे पहिले पहिलेके वर्णोकी स्मृतिको सहाय पाकर अन्तिम वर्णका हुआ श्रवण ही शाबान करा देता है, उसी प्रकार एक एक ज्ञान द्वारा पहिले देखे गये एक एक अनेक अर्थोकी स्मृतियां आत्मामें उत्पन्न हो जाती हैं, उन स्मृतियोंकी सहायता पाकर इन्द्रियजन्य अन्तिमज्ञान बहु आदि अनेकोंको जान लेता है। आचार्य कहते हैं कि सो यह वैशेषिकोंका विचार ठीक नहीं है । क्योंकि यह बहु आदिक अर्योका अवग्रह आदिकज्ञान शाबोधके समान स्मृतिसहकृत कारणसे नहीं उत्पन्न होता है । जिससे कि अवमासरूपसे भिन्न ग्रहण वहां इष्ट नहीं ग्रहण किया जाय । भावार्थ-स्मृतिकी अपेक्षासे रहित होकर एक ज्ञान बहु आदिक अर्थोको जान लेता है।
यो बनेकत्रार्थेशावभासनमीश्वरज्ञानवदादित्यप्रकाशनवयाचक्षीत न तु तद्ग्रहणं स्मृतिसहायेनेंद्रियेण जनितं तस्य प्रत्यर्थिवशवर्चित्वात् । स इदं प्रष्टव्यः किमिदं बहाद्यर्थे अवग्रहादिवेदनं स्मृतिनिरपेक्षिणाक्षेण जन्यते स्मृतिसहायेन वा १ प्रथमपक्षे सिद्धं स्यादा. दिमतं बहाधर्थावभासनस्यैवावग्रहादिज्ञानत्वेन व्यवस्थापनात् ।
जो नैयायिक या वैशेषिक नियमसे यों बखान करेगा कि युगपत् अनेक पदार्थोको जाननेवाले ईश्वरज्ञानके समान या सूर्यप्रकाशके समान इन्द्रियजन्य एक ज्ञान भी अनेक अर्थोमें वर्त जायगा किन्तु उन अनेक पदार्थोका ग्रहण युगपत् नहीं होगा, क्रमसे होगा। क्योंकि स्मृतिकी सहायताको प्राप्त कर रही इन्द्रियोंसे वह ज्ञान उत्पन्न हुआ है। प्रत्येक अर्थके अधीन होकर वर्तनेवाला होनेसे वह ज्ञान एक ही समयमें अनेकोंको नहीं जान सकता है । आचार्य बोलते हैं कि इस प्रकार कह