Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तस्वार्थचिन्तामणिः
ऋतु, वसन्तऋतु, ग्रीष्मऋतुमें अग्निकी उष्णता तरतमरूपसे बढती जाती है। वह अविभाग प्रतिच्छेदोंकी न्यूनता अधिकता भी अग्निद्रव्यका स्वभाव है । अग्नि स्वयं स्कन्ध या सजीव पदार्थ है। अतः परद्रव्योंके सम्बन्ध होनेपर बन गया विकृत अग्निपर्याय भी किसी द्रव्यका स्वभाव माना जा सकता है । स्वभाव व्यापक है और गुण पर्याय, आरोपित धर्म, अविभागप्रतिच्छेद, आदि व्याप्य हैं। हां, किसी अन्तके स्वभावमें अन्य स्वभाव न रहे, किंतु आश्रितत्त्व, स्वभावत्व आदि स्वभावोंको तो उससे कोई छीन नहीं सकता है। कोई भी पदार्य निःस्वभाव नहीं है । आप वैशेषिक नील, नीलतर, पका, अधिक पका, मीठा, अधिक मीठा, विद्वत्ता, प्रकाण्ड विद्वत्ता, आदिके समान संपूर्ण विशेषोंका यदि निराकरण करेंगे तो द्रव्यकी भी सिद्धि असम्भव हो जायगी । कारण कि अनेक खभावोंकी समष्टि ( समुदाय ) ही तो द्रव्य है । स्वभावोंके विना द्रव्य कुछ भी शेष नहीं बचता है। जैसे कि जड, शाखा, पत्र, पुष्प, फलोंको निकालदेनेपर वृक्ष कुछ नहीं अवशिष्ट रहता है । मीठापन, पीलापन, शीतपन, सुगन्धि, भारीपन, नरमपन, सचिक्कणता आदि स्वभावोंसे रहित कर देनेपर मोदक ( लड्डु ) कोई पदार्थ नहीं बचता । आठ काठों और जेवरीको पृथक् कर देनेसे खाट कुछ नहीं रहती है । इसी प्रकार स्वभावोंके विना द्रव्यका आत्मलाभ असम्भव है । तिस कारण सिद्ध हुआ हुआ कि द्रव्यके समान गुण, पर्याय, कर्म यहांतक कि कतिपय स्वभावोंको भी अनेक स्वभावोंसे सहितपना चारों ओरसे समझ लेना चाहिये । इस सिद्धांतमें किसी भी प्रातीतिक ज्ञानसे विरोध नहीं आता है।
नन्वनेकस्वभावत्वात्सर्वस्यार्थस्य तत्त्वतः ।
न चित्रव्यवहारः स्याज्जैनानां कचिदित्यसत् ॥ २९॥ सिद्धे जात्यंतरे चित्र ततोपोद्धृत्य भाषते ।
जनो ह्येकमिदं नाना वेत्यर्थित्वविशेषतः॥ ३०॥
यहां शंका है कि सम्पूर्ण अर्थोको यथार्थरूपसे जब अनेक स्वभावसहितपना सिद्ध हो गया तब तो जैनोंके यहां किसी ही विशेष पदार्थमें चित्र विचित्रपनेका व्यवहार नहीं बन सकेगा, अर्थात्-सभी घट, काष्ठ, पीतल, चांदी, रक्त आदि पदार्थ चित्र माने जावेंगे । व्यवहार में जो विशेषरूपसे रंगा हुआ वस्त्र या अनेक रंगोंका चित्रपट अथवा रंग विरंगा पत्र ही जो चित्र कहा जा रहा है, वही विशेषपदार्थ चित्र न हो सकेगा । ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार शंकाकारका कहना प्रशंसनीय नहीं है । क्योंकि विभिन्न दूसरी जातिवाले चित्र पदार्थके सिद्ध हो चुकनेपर उससे विशेष चित्रित पदार्थकी पृथक्भाव कल्पना कर व्यवहारी मनुष्य विशेष विशेष प्रयोजनोंका साधक होनेसे उन अर्थोमेंसे किसीको यह एक है, और किन्हींको ये अनेक हैं, इस प्रकार कह देता है।