Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
निमित्तसे उत्पन्न हुये नैमित्तिक धर्म भी वस्तुकी गांठके स्वभाव स्वीकार करो । पुद्गलके निमित्तसे होनेवाले राग, द्वेष, मिथ्यात्व आदि परिणाम आत्माके विभाव माने जाते हैं ।
पृथक्त्वादेरनेकद्रव्याश्रयस्यैवोत्पत्तेर्न प्रतियोग्यपेक्षत्वमिति चेन्न, तथापि तस्यैकपृथक्वादिप्रतियोग्यपेक्षया व्यवस्थानात् सूक्ष्मत्वाद्यपेक्षकद्रव्याश्रयमहत्त्वादिवत् ।
यदि वैशेषिक यों कहें कि पृथक्त्व, विभाग, संयोग आदिक तो अनेक द्रव्योंके आश्रित होते हुये ही उत्पन होते हैं । अतः वे प्रतियोगियोंकी अपेक्षा नहीं रखते हैं किन्तु आप जैनोंके यहां तो पदार्थमें इधर उधरसे बाइनेके समान पीछेसे अनेक स्वभाव आते रहते माने हैं। मांगेके गहनोंको पहननेसे कोई मनस्वी नहीं हो सकता है । आचार्य कहते हैं कि यह वैशेषिकोंका कहना तो ठीक नहीं है । क्योंकि तो भी उस पृथक्त्व आदिकी एक दूसरे द्रव्यके पृथक्पन आदिक प्रतियोगियोंकी अपेक्षा करके व्यवस्था बन रही है। जैसे कि सूक्ष्मत्व, ह्रस्वत्व, आदिकी अपेक्षा रखते हुये और एक द्रव्यमें आश्रित हो रहे महत्त्व, लम्बापन, बडापन आदिक धर्म माने जाते हैं। नारियलकी अपेक्षा आम छोटा है ! आमकी अपेक्षा आमला छोटा है । इस प्रकार अन्य पदार्थोकी अपेक्षासे अणुत्व, महत्त्व, दीर्घत्व, ह्रस्वत्व, परिमाण वैशेषिकोंने स्वयं स्वीकार किये हैं।
तस्यास्खलत्प्रत्ययविषयत्वेन पारमार्थिकत्वेन नीलतरत्वादेरपि रूपविशेषस्य पारमा. र्थिकत्वं युक्तमन्यथा नैरात्म्यप्रसंगात् नीलतरत्वादिवत्सर्वविशेषाणां प्रतिक्षेपे द्रव्यस्यासंभवात् । ततो द्रव्यवद्गुणादेरनेकस्वभावत्वं प्रत्ययाविरुद्धमवबोद्धव्यम् । ..
___ इसपर वैशेषिक यदि यों कहें कि वे पृथक्त्व, महत्व आदिक तो बाधारहित ज्ञानमें ध्रुवरूपसे विषय हो रहे हैं, अतः पारमार्थिक हैं । तब तो हम जैन कहेंगे कि इसी ढंगसे रूपके नील, नीलतर, नीलतम आदिक विशेष स्वभावोंको भी वस्तुभूतपना युक्त मान लेना चाहिये । अन्यथा यानी गांठके नैमित्तिक भावोंको यदि स्वका भाव नहीं माना जायगा तो वस्तुओंको स्वभावरहित पनेका प्रसंग हो जायगा, जैसे कि निरात्मकपना बौद्ध माना करते हैं । बात यह है कि जगत्के प्रत्येक पदार्थमें अनेक स्वभाव प्रतीत हो रहे हैं । चोर उल्लू ठगोंको प्रकाश अच्छा नहीं लगता है, व्यवहारियोंको प्रकाश समीचीन भासता है । गृहस्थको न्यायधन उपार्जनीय है। दिगम्बर मुनियोंको धन अर्जनीय नहीं है । चीकनी, स्वच्छ, सुथरी, स्थलीके होनेपर भी पिडुकिया काटों या तृणोंको बिछाकर अण्डे देती है, किंतु मनुष्यको ऐसे कण्टकाकीर्णस्थलमें बैठना नहीं रुचता है। संक्षेपमें यही कहना है कि संपूर्ण पदार्थोमें अनेक स्वभाव विद्यमान हैं। देखिये, द्रव्यमें गुण रहते हैं। गुणोंमें पर्याये ठहरती हैं, पर्यायोंमें स्वभाव और अविभागप्रतिच्छेद, वर्तते हैं गुण और पर्याय भी सहभावी स्वभाव हैं । वृत्तिमान् धर्मोको स्वभाव कहते हैं । दण्डद्रव्य दण्डी पुरुषका स्वभाव हो सकता है । रूपगुण पुद्गलका स्वभाव है । अग्निस्वरूप. पुद्गलका स्वभाव उष्णतापर्याय है। शीत