Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्य लोकवार्तिके
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प्रदीप ही प्रकाश करनारूप क्रिया है । देवदत्त मल्ल अपने शरीरके व्यायामसे अपने शरीरको ही दृढ कर रहा है।
कथमेकं ज्ञानं करणं क्रिया च युगपदिति चेत् तच्छक्तिद्वययोगात - पावकादिवत् ! पावको दहत्यौष्ण्येनेत्यत्र हि दहनक्रिया तत्कारणं चौष्ण्यं युगपत्पावके दृष्टं तच्छक्तिद्वय संबंधादिति निर्णीतप्रायं।
एक बान एक ही समयमें करण और क्रिया भी कैसे हो सकता है ? ऐसा आक्षेप करनेपर तो हम जैन समाधान करते हैं. कि उन दो कार्योको करानेवाली दो शक्तियोंके योगसे दो कार्योको ज्ञान सम्भाल लेता है। जैसे कि अग्नि, पाषाण, लट्ठा, आदिक पदार्थ अपनी अनेक शक्तियोंके बलसे एक समयमें अनेक कार्योको कर देते हैं । अग्नि अपनी उष्णतासे जल रही है । या जला रही है । इस प्रकार यहां जलनारूप क्रिया और उसका कारण उष्णपना एक ही समय अग्निमें उन दो दाह्यत्व दाहकत्व शक्तियोंके सम्बन्धसे हो रहे देखे गये हैं। इस बातको हम बहुत अंशोंमें निर्णीत कर चुके हैं । एक पदार्थमें दो तीन क्या अनेकानेक शक्तियां विद्यमान हैं। और उनके कार्य भी सतत होते रहते हैं । अल्पज्ञ जीवोंको उनके कतिपय कार्य ज्ञात हो जाते हैं। बहुतसे नहीं, क्या करें बहुभाग कार्योको जाननेके लिये उनके पास उपाय नहीं है । अनेक शक्तियां तो द्रव्य, क्षेत्र आदि निमित्त मिलनेपर अपना चमत्कार (जौहार) दिखला सकती हैं। निमित्त नहीं मिलनेपर तो तृणरहित दशामें पड़ी हुई भागके समान स्वयं शान्त हो रहती हैं। हमको संसारमें ऐसा कोई पदार्थ दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है, जो कि एक समयमें व्यक्त, अव्यक्त अनेक कार्योको नहीं कर रहा होय, एक वक्ता या अध्यापक पढा रहा है, उसी समय स्वशरीरमें रक्त आदि बना रहा है। चटाई या गद्दीको भी फाड रहा है। कोनेमें पडा हुआ, थोडासा कूडा भी भूमिको बोझ दे रहा है, वायुको दूषित कर रहा है, दरिद्रता बढा रहा है, स्वच्छ आत्मामें आलस्य पैदा कर रहा है।
अरपना प्रगट करा रहा है रोग कीटोंका योनिस्थान बन रहा है, इत्यादि उस कूडेके अनेक कार्य कहांतक गिनाये जाय । यही दशा छोटेसे छोटे टुकडेकी समझ लेना । सर्वत्र अनेकान्तका सामाज्य फैल रहा है।
नन्वर्थोपि वैशद्यस्य प्रतिसंख्यानानिरोध्यत्वस्य चासंभवान्न ततोवग्रहस्याक्षजत्वसिद्धिरिति पराकूतमुपदर्य निराकुरुते ।
__ शंकाकार कहता है कि आप जैनोंने अर्थावप्रहके इन्द्रियजन्यत्वकी जिन हेतुओंसे सिद्धि की यी सो तो ठीक नहीं बैठती है । क्योंकि अवग्रह शानके विशदपने और प्रतिकूल प्रमाणसे अविरोध्यपनेका असम्भव है। अतः उन हेतुओंसे अवग्रहके अर्यजन्यत्व या इन्द्रियजन्यत्वकी सिद्धि नहीं
हो सकी । इस प्रकार दूसरे प्रतिवादियोंकी अनधिकारचेष्टा को दिखलाकर आचार्य महाराज उसका • निराकरण करते हैं।