Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
बहुविध तथा उनसे इतर अल्प और अल्पविध इनमें परस्पर भेद सिद्ध है । भेद, प्रभेदसहित अनेक प्रकार कैई जातिके घोडोंका जो ग्रहण है, वह बहुविधका ग्रहण है । एक प्रकार के अनेक घोडोंका ग्रहण एकविधका अवग्रइ है । एक दो घोडेका ज्ञान अबहुका अवग्रह है। कैई घोडे, अनेक बैल, कतिपयमहिष आदिका समूहालम्बनज्ञान भी बहुविधका अवग्रह समझा जायगा ।
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एवं बहेकविधयोरभेद इत्यपास्तं बहूनामप्यनेकानामेकप्रकारत्वं ह्येकविधं न पुनर्बहुत्वमेवेत्युदाहृतं द्रष्टव्यम् ।
इस प्रकार बहुत और एकविधका अभेद है, यह शंका भी दूर कर दी गयी समझ लेना चाहिये | क्योंकि भिन्न भिन्न जातिके एक एक पदार्थोंको एकत्रित कर बहुतपना हो सकता है । किन्तु एकविधपना तो एक जातिके अनेक पदार्थोंका ही होगा । अतः बहुत भी एक जातिके अनेकों का एक प्रकारपना एकविध कहा जाता है । किन्तु वहां फिर बहुतपनेका व्यवहार नहीं करना चाहिये। इस प्रकार उदाहरण दिया जा चुका देख लेना चाहिये ।
क्षिप्रंस्याचिरकालस्याध्रुवस्य चलितात्मनः ।
स्वभावैक्यं न मंतव्यं तथा तदितरस्य च ॥ ६ ॥
शीघ्रकालके क्षिप्रका और चलितखरूप हो रहे अध्रुवका स्वभाव एकपना नहीं मानना चाहिये तथा उनसे इतर अक्षिप्र और ध्रुवका भी स्वभाव एक नहीं है, इनमें मोटा अन्तर विद्यमान है ।
अचिरकालत्वं ह्याशुप्रतिपत्तिविषयत्वं चळितत्वं पुनरनियतप्रतिपत्तिगोचरत्वमिति स्वभावभेदात् क्षिप्राध्रुवयोर्नैक्यमवसेयं । तथा तदितरयोरक्षिप्रध्रुवयोस्तत एव ।
अचिरकालपना तो शीघ्र ही प्रतिपत्तिका विषय हो जानापन है । और चलितपना तो फिर नहीं नियत ( स्थिर ) हो रहे पदार्थ की प्रतिपत्तिका विषयपना है। इस प्रकार स्वभावके भेद होनेसे क्षिप्र और अधुत्रका एकपना नहीं निर्णीत कर लेना चाहिये । अर्थात् - क्षिप्र ही अधुत्र नहीं है । तथा उनसे विपरीत अक्षिप्र और ध्रुवका भी तिस ही कारण यानी देरसे प्रतीति कराना और स्थिर प्रतिपत्ति कराना, इन स्वभावभेदों के होनेसे उनका एकपना नहीं जान लेना चाहिये ।
निःशेषपुगौद्गत्यभावाद्भवति निःसृतः ।
स्तोक पुद्गलनिष्क्रांतेरनुक्तस्त्वाभिसंहितः ॥ ७ ॥ निष्क्रांतो निःसृतः कात्स्यदुक्तः संदर्शितो मतः । इति तद्भेदनिर्णीतेरयुक्तैकत्वचोदना ॥ ८ ॥