Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोक बार्तिके
ज्ञान करा देना अधिक सुलभ है। किन्तु निषेध करने योग्य असंख्य फल, वस्त्र, आदिकोंका कण्ठोक्त एक एकका निरूपण कर शेष बचे हुये अभीष्ट चार फलोंका ज्ञान कराना अतिकठिन है । फिर आचार्य महाराजने शिष्योंके समझानेके लिये क्लिष्ट उपाय अवलम्ब क्यों लिया है ? बताओ। इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्यद्वारा उत्तर कहा जाता है ।
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तत्र प्रधानभावेन बह्वादीनां निवेदनं । प्रकृष्टावृतिविश्लेषविशेषात् नुः समुद्भवात् ॥ ९ ॥ तद्विशेषणभावेन कथं चात्राल्पयोग्यतां । समासृत्य समुद्धतेरितरेषां विधीयते ॥ १० ॥
तिस सूत्रमें प्रधानरूपसे बहु, बहुविध, आदिका श्री उमास्वामी आचार्यने जो निवेदन किया है, उसका कारण यह है कि ज्ञानावरणके अधिक प्रकर्षताको लिये हुये क्षयोपशविशेषसे जीवके बहु आदि ज्ञानोंकी समीचीन उत्पत्ति होती है । और उन बहु आदिके विशेषण होकरके इतर अल्प, अल्पविध, आदिके ज्ञान आत्मामें अच्छे उत्पन्न हो जाते हैं, यह समाधान किया गया है । भावार्थ – बहु, बहुविध, शीघ्र, अनिसृत, नहीं कहा गया, अविचलित, इन पदार्थोंकी इप्ति करने के लिये बढिया क्षयोपशम होना चाहिये । अन्य शेषोंके लिये मन्द क्षयोपशमसे भी निर्वाह हो सकता है। विशेष बुद्धिमान् पुरुष बहु आदिको समझकर कालाणुओंके निमित्तसे जराग्रस्त हो गई बुद्धिसे अल्प आदि पदार्थों को भी लगे हाथ समझ लेता है । किन्तु अल्प आदिको जाननेवाली बुद्धि द्वारा शेष बचे हुये बहुतों का ज्ञान तो नहीं हो सकेगा । महाव्रतोंका कण्ठोक्त उपदेश देकर ही अणुव्रतों का परिशेषमें उपदेश देना न्याय्य है । बडी विपत्तिमें आक्रान्त हो चुकनेपर मनुष्य छोटी विपत्तिको सुलभता से सहलेता है, किन्तु छोटीको सहनेवाला बडी विपत्तिके प्राप्त होनेपर घबडा जाता या मर जाता है ।
: अथ बहादीनां क्रमनिर्देशकारणमाह ।
अब बहु, बहुविध, आदिकोंके यथाक्रमसे निर्देश करनेके कारणको आचार्य कहते हैं । बहुज्ञानसमभ्यर्च्य विशेषविषयत्वतः । स्फुटं बहुविधज्ञानाज्जातिभेदावभासिनः ॥ ११ ॥ तत्क्षिप्रज्ञानसामान्यात्तच्चानिःसृतवेदनात् । तदनुक्तगमात्सोपि ध्रुवज्ञानात्कुतश्चन ॥ १२ ॥