Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके .
नेसे तो नूतन वस्तु हो जानेके कारण वह दोष नहीं गिना जाता है । चाण्डालसे साक्षात् स्पर्श हो जाना दोष है । किन्तु भूमि, क्षेत्र, गृहका व्यवधान हो जानेपर परम्परासे क्रूरकर्मा चाण्डालका स्पर्श उतना दोष नहीं गिना जाता है । अंगीका पैसा या नाजके छूजानेपर भी कोई कोई स्नान नहीं करते हैं। दृष्टपदार्थ भी समारोप हो जानेसे अदृष्टके समान हो जाता है । इसी प्रकार गृहीत हो चुके अर्थमें भी विशेष विशेषांशोंको ग्रहण करनेवाले अवाय, धारणा, ज्ञान प्रमाण हैं। सर्वथा नवीनता तो विस्मयकरी और भयावह है।
सत्यपि गृहीतग्राहित्वेवायधारणयोः स्वस्मिन्नर्थे च प्रमाणत्वं युक्तमुपयोगविशेषात् । न हि यथेहागृह्णाति विशेष कदाचित्संशयादिहेतुत्वेन तथा चावायः तस्य दृढतरत्वेन सर्वदा संशयायहेतुत्वेन व्यापारात् । नापि यथावायः कदाचिद्विस्मरणहेतुत्वेनापि तत्र व्याप्रियते तथा धारणा तस्याः कालांतराविस्मरणहेतुत्वेनोपयोगादीहावायाभ्यां दृढतमत्वात् । प्रपंचतो निश्चितं चैतत्स्मरणादिप्रमाणत्वप्ररूपणायामिति नेह प्रतन्यते ।
गृहीतका ग्राहकपना होते हुये भी अवाय और धारणा ज्ञानोंका स्व और अर्थ विषयको जाननेमें प्रमाणपना मानना युक्त है। क्योंकि विशेष उपयोग उत्पन्न हो रहा है। जिन अंशोंको अवग्रह, ईहा ज्ञानोंने छुआ भी नहीं था, उनमें अवाय और धारणाज्ञान विशेष उपयोग करा रहे हैं। जिस प्रकार ईहाज्ञान अर्थ के विशेषको कभी कभी संशय, विपर्यय आदिके कारणपने करके जान रहा है, तिस प्रकार अवाय नहीं जानता है । क्योंकि वह अवायज्ञान अपने विषयको जाननेमें अतिदृढ है। इस कारण सभी कालोंमें संशय आदिका हेतु नहीं हो करके अवाय अपने विषयको जानने में व्यापार कर रहा है । अर्थात्-ईहाज्ञान हो करके भी उस विषयमें संशय, विपर्यय उत्पन्न हो सकते हैं। किन्तु अवाय हो जानेपर उस विषयमें कदाचित् भी ( सर्वदा ) संशय विपर्यय नहीं हो पाते हैं । क्या यह विशेषता कम है ! तथा धारणामें भी यों ही लगाना कि जिस प्रकार अवायज्ञान कभी कभी विस्मरणका कारण होनेपनसे भी उस अर्थको जाननेमें व्यापार कर रहा है, उस प्रकार धारणाज्ञान व्यापार नहीं कर रहा है । क्योंकि वह धारणाज्ञान तो कालान्तरोंमें नहीं विस्मरण होने देनेका हेतु है। इस कारण अबायज्ञानसे धारणाज्ञानद्वारा विशेष उपयोग ज्ञान हुआ। अतः यह धारणाज्ञान अवग्रह, ईहाज्ञानोंसे वज्रकीलके समान ठुका हुआ अत्यधिक दृढ हो रहा है। यह विशेषता तो बडी पुष्ट है । इस विषयको हम स्मरण आदि ज्ञानोंके प्रमाणपनका प्रकृष्ट कथन करनेके अवसरमें विस्तारसे निश्चित करा चुके हैं। इस कारण यहां अधिक विस्तार नहीं किया जाता है । जितना कुछ नवीन प्रमेय कहा था, उसको यहां प्रकरणमें कहकर तुमको अगृहीत ज्ञेयका ग्रहण करा दिया गया है। जैसे कि विषयोंको जाननेमें रह गई त्रुटिको अगृहीतका ग्रहण कर अवायं और धारणाज्ञान पूर्ण करा देते हैं ।