Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
४७२
तत्त्वार्थ लोकवार्तिके
पदार्थ तो नवीन उत्पन्न हो जाते हैं, किन्तु ज्ञान द्वारा उस नवीनताका ग्रहण नहीं होनेपर धारावाहिक हो जाने से वह ज्ञान अप्रमाण हो जाता है । विषयके अनुसार विषयीको हो जानेकी व्यवस्था नहीं है । अतः प्रमाणके लक्षणमें अपूर्व विशेषणका प्रयोग करना व्यभिचार दोषकी निवृत्तिके लिये सफल है। किसी विषय में ईहाज्ञान हो चुकनेपर भी संशय आदिक उठ सकते हैं किन्तु अवायज्ञान हो जानेपर संशय, विपर्ययको अवसर नहीं मिलता है। तथा किसी विषयका अवाय हो जानेपर भी कालान्तर में वह विषय भूला जा सकता है । किन्तु धारणाज्ञान हो जानेपर कालान्तरोंमें विस्मरण नहीं होने पाता है । क्षयोपशम अनुसार तारतम्यको लिये हुये जैसी जैसी धारणा होगी तदनुसार एक मिनट, एक घण्टा, एक दिन, एक मास, वर्षभर, जन्मतक, जन्मान्तरोंतक भी उद्बोधक कारण मिलने पर पीछे स्मरण हो जाता है । इस प्रकार सामान्य विशेष आत्मक वस्तुमें क्रमसे हो रहे अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणाज्ञान हैं। ये सब मतिज्ञान हैं । एकदेशविशद होनेसे न्याय ग्रन्थों में सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष माने गये हैं । वस्तुतः ये सभी ज्ञान परोक्ष हैं ।
सदा लोचनादर्शनात्स्युः क्रमेणाऽऽत्मनोवग्रहेहादि संवेदनानि । मतिज्ञानहर्म्यस्थ सुस्थम्भतुल्यान्युपादान हानामपेक्षाफलाप्त्यै ॥ १ ॥
-x
मतिज्ञानके विशेष प्रभेदोंका निरूपण करनेके लिये श्रीउमास्वामी महाराज भव्यजीवोंको तत्वज्ञानार्थ सोलहवां सूत्ररूप प्रसाद बांटते हैं।
बहु बहुविधक्षिप्रानिमृतानुक्तध्रुवाणां सेतराणाम् ॥ १६ ॥
बहुत अधिक वस्तु या बहुत संख्यावाली वस्तु और बहुत प्रकारकी वस्तुयें तथा शीघ्र अथवा सम्पूर्ण नहीं निकले हुये, नहीं कहे गये और निश्चल तथा इनसे इतर अर्थात थोडे या एक एवं एक प्रकार या अल्पप्रकार तथा चिरकाल, पूरा निकला हुआ, कण्ठोक कहा गया, अस्थिर, इन पदार्थों के अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा, स्मृति, आदिक ज्ञान होते हैं। पूर्व सूत्रमें कहे गये ज्ञानों के ये बहु आदिक बारह पदार्थ विषय हैं ।
किमर्थमिदं सूत्रं ब्रवीति । यद्यवग्रहादिविषयविशेषनिर्ज्ञानार्थं तदा न वक्तव्यमुत्तरत्र सर्वज्ञानानां विषयप्ररूपणात् प्रयोजनांतेराभावादिति मन्यमानं प्रत्याह ।
कोई विद्वान् शब्दकृत लाघत्रको ही विद्वत्ताका प्राण मानता हुआ आक्षेप करता है कि इस बहु आदि सूत्रको उमास्वामी महाराज किसलिये कह रहे हैं ? बताओ । यदि अवग्रह आदि ज्ञानोंके विशेष विषयका निर्णयज्ञान करानेके लिये यह सूत्र कहा जाता है, तब तो यह सूत्र नहीं कहना चाहिये। क्योंकि कुछ आगे चलकर उत्तरवर्ती प्रकरण में संपूर्ण ज्ञानोंके विषयका सूत्रकार द्वारा स्पष्ट कथन किया ही जावेगा । “मतिश्रुतयोर्निबन्धो ” यहांसे लेकर चार सूत्रोंमें ज्ञान के विषयोंका