Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
भिन्न नहीं होकर अभिन्न हो जायंगे और यदि आप जैन उनको अभिन्न न मानोगे यानी स्वसिद्धान्त अनुसार भिन्न भिन्न मानते रहोगे तो फिर उन ज्ञानोंके एक मतिज्ञान कैसे कह सकोगे ? क्योंकि भेद और एकत्वका विरोध है, इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर यहां आचार्य महाराजद्वारा समाधान कहा जाता है ।
क्रमादवग्रहेहात्मद्रव्यपर्यायगोचरं । जीवस्यावृतिविच्छेदविशेषक्रमहेतुकम् ॥ ६० ॥ तत्समक्षेतरव्यक्तिशक्त्येकार्थवदेकदा । न विरुद्धं विचित्राभज्ञानवद्वा प्रतीतितः ॥ ६१ ॥
ज्ञानावरणके क्षयोपशमविशेषके क्रमको हेतु मानकर उत्पन्न हुये तथा द्रव्य और पर्यायको विषय करनेवाले अवग्रह, ईहास्वरूप ज्ञान जीवके ( में ) क्रमसे उत्पन्न हो जाते हैं। उन अवग्रह आदि ज्ञानोंमें एक ही समय स्वग्रहणकी अपेक्षासे प्रत्यक्षपना और विषय अंशकी अपेक्षासे परोक्षपना विरुद्ध नहीं है। तथा उपयोगरूप व्यक्ति और योग्यतारूप शक्तियुक्त एक अर्थसहितपना भी विरुद्ध नहीं है । क्योंकि नील, पीत, आदि विचित्र प्रतिभासनेवाले चित्रज्ञानके समान अवग्रह, ईहा, आदिकी तैसी प्रतीति हो रही है । सौत्रान्तिक अथवा ज्ञानाद्वैतवादी बौद्धोंके मत अनुसार ये तीन दृष्टान्त समझना चाहिये । बौद्धोंने शुद्धज्ञान अंशको प्रत्यक्ष माना है । और वेद्य, वेदक, सम्वित्ति, अंशोंको इतर यानी परोक्ष माना है । तथा शुद्धज्ञान अद्वैतवादियोंने ज्ञान अंशकी व्यक्ति मानी है। और वेद्य, वेदक, सम्वित्ति, अंशोंके विवेक यानी पृथक्भाव ( अभाव ) की ज्ञानमें शक्ति मानी है। सांख्योंने भी प्रकृतिरूप एक अर्थको एक ही समय शक्ति और व्यक्तिरूप माना है। एवं अनेक आकाररूप प्रतिभासोंसे युक्त हो रहा ज्ञान भी बौद्धोंने इष्ट किया है । इन दृष्टान्तोंसे अवग्रह, ईहा आदिको द्रव्यपर्यायस्वरूप अर्थको ग्रहण करनेवाला एक मतिज्ञानपना अविरुद्ध साध दिया है।
प्रत्यक्षपरोक्षव्यक्तिशक्तिरूपमेकमर्थ विचित्राभासं ज्ञानं वा स्वयमविरुद्धं युगपदभ्युपगच्छन् क्रमतो द्रव्यपर्यायात्मकमर्थ परिछिंददवग्रहेहास्वभावभिन्नमेकं मतिज्ञानं विरुद्धमुद्भावयतीति कथं विशुद्धात्मा ? तदशक्यविवेचनस्याविशेषात् । न ह्येकस्यात्मनो वर्णसंस्थानादिविशेषणद्रव्यतद्विशेष्यग्राहिणावग्रहेहाप्रत्ययौ स्वहेतुक्रमाक्रमशो भवन्ना वात्मांतरं नेतुं शक्यौ संतौ शक्यविवेचनौ न स्यातां चित्रज्ञानवत् तथा प्रतीतेरविशेषात् ।
___ घट नामके एक ही पदार्थको व्यक्तिकी अपेक्षासे प्रत्यक्षस्वरूप और उसी समय उसकी अतीन्द्रिय शक्तियोंकी अपेक्षासे परोक्षस्वरूप एक ही समयमें जो मीमांसक स्वीकार कर रहा है, अथवा युगपत् नील, पीत, आदिक विचित्र प्रतिभासवाले एक चित्रज्ञानको जो बौद्ध अविरुद्ध स्वयं स्वीकार कर रहा है, किन्तु द्रव्य और पर्यायस्वरूप अर्थको क्रमसे जान रहे और अवग्रह, ईहा