Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
रूप स्वभावोंसे भेदभावको प्राप्त हो रहे एक मतिज्ञानके ऊपर विरोध दोषका उद्भाव करा रहा है । इस प्रकार पक्षपातग्रस्त प्रतिवादी कैसे विशुद्ध आत्मावाला कहा जा सकता है ? उस एक ही प्रकारकी घी, चावल, खांड आदि वस्तुओं से अपनी दूकानकी सौदाको बढिया और दूसरेके मालको घटिया बतानेवाले हीन वणिक्की आत्मा जैसे दूषित है। विशुद्ध नहीं है। उसी प्रकार अनेक धर्म आत्मक एक वस्तुको अनेक प्रतिवादी अपने घरमें स्वीकार कर रहे हैं । मीमांसक या सांख्य विद्वान् शक्ति व्यक्तिरूप हो रहे एक पदार्थको मानते हैं । नैयायिक पण्डित समूहालम्बन एक ज्ञानको स्वीकार करते हैं । वैशेषिक धीमान् सामान्यका विशेषस्वरूप हो रहे पृथिवीत्व या घटत्व पदार्थको एक मानते हैं । बौद्ध वृद्ध भी चित्रज्ञानकी स्वीकृति चाहते हैं । ज्ञान अद्वैतवादी महापण्डित तो एक ज्ञानको युगपत् प्रत्यक्ष परोक्षपनेसे गा रहे हैं। किन्तु द्रव्य, पर्यायस्वरूप एक अर्थको जाननेवाले अवग्रह, ईहास्वरूप एक मतिज्ञानमें विरोध दोष उठा रहे हैं। भला यह भी कोई न्यायसंगत व्यवहार कहा जा सकता है ? जिस प्रकार भिन्न भिन्न पृथक करनेकी अशक्यता चित्रज्ञान आदि पदार्थोंमें है, वैसे ही अशक्यविवेचना अवग्रह, ईहा स्वभाववाले मतिज्ञानमें भी है। एक देवदत्त आत्माके अपने अपने हेतुओंके क्रम अनुसार क्रम क्रमसे हो रहे और वर्ण, संस्थान, रचना, ऊंचापन, आदि विशेषणरूप पर्याय और उन पर्यायोंसे सहित हो रहे विशेष्यद्रव्यको ग्रहण करनेकी टेववाले ये अवग्रह ईहा स्वरूप दो ज्ञान ( कर्ता ) अन्य जिनदत्त, पार्श्वदत्त, आदि आत्माओंमें प्राप्त करानेके लिये शक्य हो रहे नहीं है । एक आत्माके एक मतिज्ञानस्वरूप अवग्रह, ईहा, ज्ञान चित्रज्ञानके समान पृथक् करने योग्य नहीं हो सकेंगे। अवग्रह, ईहाज्ञान और चित्रज्ञानमें तिस प्रकारकी प्रतीति होनेका कोई विशेष ( भेद ) नहीं है । एक पदार्थ अनेक धर्म आत्मक हो रहा है। इस सिद्धान्तको हम कई बार निर्णीत कर चुके हैं । किन्तु पुनः पुनः प्रतिवादियोंके शंकापिशाचिनी प्रस्त हो जानेसे उनकी बार बार चिकित्सा करनी पडती है । स्याद्वाद सिद्धान्तका रहस्य प्रतीत हो जानेपर तो अखिल सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं।
कथं पुनरवायः स्यादित्याह ।
एक मतिज्ञानके अवग्रह, ईहा, भेदोंको हम समझ चुके हैं। अब आप बताईये कि फिर तीसरा अवाय मतिज्ञान किस प्रकारका होगा ! इस प्रकार प्रतिपाद्यकी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्दस्वामी अवायका लक्षण कहते हैं। ...
अवग्रहगृहीतार्थभेदमाकांक्षतोक्षजः । स्पष्टोवायस्तदावारक्षयोपशमतोत्र तु ॥६२॥ संशयो वा विपर्यासस्तदभावे कुतश्चन । . तेनेहातो विभिन्नोसौ संशीतिभ्रांतिहेतुतः ॥ ६३॥